पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२१७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। जिस दुर्दशा के साथ मानसिंह मेवाड़ से लौटा, सर्वविदित है। मेवाड़ में मुगल थाने कभी भी सुरक्षित एवं स्थायी नहीं रहे । मुगल सेना का रसद-मार्ग सदैव असुरक्षित रहा । प्रताप ने "जमीन फूंको” नीति का अनुसरण किया। जिस भू-भाग पर मुगल सैनिक आधिपत्य जमा लेते वहां के लोग अपना माल-असबाब लेकर पर्वतों में चले जाते, साथ में कृषि आदि वरबाद करके जाते और कुछ भी उपयोगी सामान शत्रु के लिये नहीं छोड़ते थे। प्रताप के सैनिक साधारण वेशभूषा वाले होते थे और तीव्र गति और यकायक आक्रमण में प्रवीण होते थे। उनका साधारण भोजन प्रायः वे कपड़े में लपेट कर कमर पर बांध कर रखते थे, जिससे तेजी से एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये प्रस्थान करने में सरलता रहती थी। प्रताप की सैन्य-व्यवस्था सदा इतनी सुसंगठित रही कि शत्रु कभी भी चैन से नहीं रहा। इतना ही नहीं समय-समय पर मेवाड़ के बाहर, गुजरात, मालवा, आमेर आदि प्रदेशों के इलाकों में यकायक धावा मार कर मुगल सेना को नुकसान पहुंचाकर और लूटमार करके सुरक्षित लौट आते थे। शस्त्रास्त्रों का निर्माण, अश्वशालाओं की व्यवस्था, सैनिकों का प्रशिक्षण, सेनाओं के लिए खाद्य सामग्री तथा अन्य वस्तुओं की समुचित व्यवस्था, सैनिको का अनुशासन, विभिन्न सैन्य-टुकड़ियों के बीच समन्वय और केन्द्रीय संचालन आदि सभी कार्य बड़े सुनियोजित प्रकार से चले, जिसके परिणामस्वरूप प्रताप को सफलता मिली और धन-जन की कम से कम हानि हुई। 5. शत्रु इलाके की लूट व कर वसूलना प्रताप की रक्षात्मक युद्ध-व्यवस्था में समय-समय पर मुगल प्रदेशों पर धावे करने की नीति शामिल थी, जिसका प्रयोजन मुगलों को जन-धन की हानि पहुंचाने और मेवाड़ की सेना के लिए रसद, शस्त्रास्त्र आदि प्राप्त करने के अतिरिक्त मेवाड़ पर आक्रमण करने वाली शत्रु-सेनाओं का ध्यान बंटाना और उनके आक्रमण में शिथिलता पैदा करना था। जब मुगल सैनिक कुम्भलगढ़, गोगून्दा आदि स्थानों में उलझे होते, उस समय प्रताप और उसकी टुकड़ियां मालवा, गुजरात आदि इलाकों की ओर धावा मारती होती थीं। महाराणा प्रताप का चावंड को मेवाड़ की राजधानी बनाना उसके उत्तम रणनीतिज्ञ और प्रशासक होने का प्रमाण है। चावंड की उपजाऊ घाटी चारों ओर से घनी, विशाल एवं विस्तृत पर्वतमालाओं से घिरी हुआ-1 यह ध्यान देने की बात है कि चावंड को राजधानी बनाने से अकवर की मेवाड़ को घेरकर अकेला करने की नीति और भी असफल हो गई, यहां रहने से प्रताप के लिये सिरोही, ईडर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, गुजरात, मालवा आदि प्रदेशों से निकट सम्पर्क बना रहा। इन प्रदेशों के मुगल विरोधी तत्वों का सहयोग प्राप्त करना आसान हो गया, यहां तक कि इन प्रदेशों के मुगलाधीन राजपूत शासकों से भी समय-समय पर मदद प्राप्त करना संभव 6. महाराणा का आर्थिक प्रबन्ध राज्य का मैदानी भाग मुगल अधीनता में चले जाने के कारण कृषि एवं व्यापार से होने वाली आय का अधिकांश भाग हाथ से जाता रहा। चारों ओर से मुगल-राज्य प्रभावित क्षेत्रों से घिर जाने के कारण पर्वतीय भूभाग में व्यापार और व्यापार से होने वाली आय लगभग बन्द हो गयी। मैदानी भाग हाथ से निकल जाने के कारण मेवाड़ की बड़ी-बड़ी जागीरें समाप्त हो गई, जो उस काल की सामंती प्रथा के अनुसार राज्य की सैन्य-व्यवस्था का मुख्य साधन थी। जागीरदार स्वजनों के साथ पहाड़ों में चले आये। जिनको अपने भरण-पोषण के लिये पहाड़ों में यत्र-तत्र नई जागीरें दी गई । अतएव प्रताप को केन्द्रीय स्तर पर राज्य की सेना का गठन करना पड़ा, जिसका व्यय राज्य के कोष से किया गया। इस 217