रहा। तक पहाड़ों की चढ़ाईयां पार कर लेते थे। किलकारी मारकर अथवा ढोल वजाकर संकेतों द्वारा वे एक पर्वत से दूसरे पर्वत तक संदेश पहुँचा देते थे। मुगल आक्रमणों के बावजूद प्रताप ने कृषि-पैदावार की ऐसी व्यवस्था रखी जिससे उसके हजारों सैनिक कभी भी खाद्य-सामग्री के अभाव में नहीं रहे । जब कभी मुगल सेना का अभियान होता, घाटियों में बसने वाले लोग बड़े पर्वतों के घने भागों में चले जाते जिनमें घुसना मुगलों के लिए सस्ती मौत को बुलावा देना होता था। यह प्रताप के प्रशासनिक कुशलता का ही परिणाम था कि 300 मील की परिधि वाले छोटे पर्वतीय घेरे में मुगल सेनाओं के अनवरत आक्रमण-प्रवाहों एवं विध्वंस के बीच भी उसका शासन जीवित 4. सैन्य प्रशासन में परिवर्तन, परंपरागत जागीरदारी प्रथा के अनुसार राज्य की ओर से जागीरदारों को राज्य की सैनिक सेवा की एवज में जागीरें दी जाती थीं। तदनुसार जागीरदार जागीरों की आय से अपने यहां निश्चित घुड़सवार और पैदल सिपाहियों की सेना का प्रबंध करते थे। जागीरदारों की सैनिक टुकड़ियों से मिलकर ही राज्य की प्रधान सेना का निर्माण होता था। यद्यपि पर्वतीय भाग में राणा प्रताप ने नये पट्टे देकर जागीरों की पुनर्व्यवस्था के प्रयास किये किन्तु पर्याप्त उपजाऊ भूमि के अभाव में पुरानी व्यवस्था का कारगर होना संभव नहीं था। अतएव प्रताप ने राज्य की केन्द्रीय सेना के निर्माण पर अधिक ध्यान दिया, जिसने युद्ध-काल के दौरान प्रधान सेना का कार्य किया। ग्वालियर का राजा रामसाह तंवर, उसके पुत्र और. उसके राजपूत सैनिक, हकीम खाँ सूर और उसके अफगान सैनिक, केन्द्रीय सेना के ही अंग रहे । इस भांति केन्द्रीय सेना का गठन किया गया। प्रताप के सैन्य संगठन की दूसरी विशेषता थी, उसकी विकेन्द्रित व्यवस्था । मेवाड़ की सेना कई टुकड़ियों में विभाजित की जाकर देश के महत्वपूर्ण सामरिक स्थानों पर तैनात की गई। जैसा पूर्व में कहा गया है, प्रताप ने 300 मील की परिधि वाले मेवाड़ के पर्वतीय भू-भाग के चारों ओर के प्रवेश मार्गों के सभी नाकों पर अपनी दक्ष आक्रमणकारी सैन्य टुकड़ियां कायम कर रखी थीं। प्रत्येक टुकड़ी का एक सेनानायक होता था, जिसके मातहत चुनिंदा घुड़सवार और पैदल सिपाही तथा सहयोगी भील सैनिक होते थे। सभी सैन्य दल केन्द्रीय आदेशों के अनुसार कार्य करते थे। भील समुदाय की तीव्र संचार-व्यवस्था के माध्यम से वे कुछ ही घंटों में केन्द्रीय सेनाध्यक्ष को अपने क्षेत्र की नवीनतम गतिविधि की सूचना पहुंचा देते और आवश्यक आदेश प्राप्त कर लेते थे। इस भांति सम्पूर्ण पर्वतीय भू-भाग की विकेन्द्रित सैन्य व्यवस्था के बीच पूरा समन्वय एवं तालमेल रहता था। ये सैन्य टुकड़ियां मुगल सेना द्वारा पर्वतीय भाग में प्रवेश करने के समय ऊपरी पहाड़ी भाग से धावा मारकर उनका रास्ता रोकती, उनको हानि पहुंचाती और आगे बढ़ने की गति में अवरोध पैदा करती। मुगल सेना के बड़ी तादाद में होने पर वे ऊपरी पहाड़ों में पीछे हुट कर आगे बढ़ती हुई मुगल सेना पर छुटपुट आक्रमण करके जन-धन की हानि पहुंचाती और आतंकित करती रहती थीं। छापामार युद्ध-प्रणाली हल्दीघाटी-युद्ध के बाद छापामार युद्ध-प्रणाली का उपयोग किया गया। इस प्रणाली के अनुसार मुगल सेना का सीधा मुकाबला नहीं किया जाता था। सैनिक टुकड़ी गुप्त स्थान से निकलकर तेजी के साथ मुगल थानों अथवा हमलावर सेनाओं पर यकायक हमला करती, मुगल सैनिकों को मारकर और रसद, शस्त्र आदि लूट कर तेजी के साथ वापस गायब हो जाती थी। प्रताप की छापामार युद्ध-प्रणाली से मुगल सेना सदा आतंकित रही। गोगुंदा से . 216
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