होने के गुण प्रकट हुए, जिसने संकटकाल में अपने राज्य-प्रशासन को स्थायी एवं सुदृढ़ स्वरूप प्रदान किया। 3. संकट के समय योग्य शासन नीति महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के दो वर्ष पूर्व 1570 ई. में अकबर के नागोर दरबार तक राजपूताना की लगभग सभी बड़ी शक्तियां अकवर के अधीन हो गई थीं। गुजरात विजय के बाद अकबर ने मेवाड़ के दक्षिणी भाग में स्थित शेष छोटी राजपूत शक्तियों को विजय करके मेवाड़ के पर्वतीय भाग को घेर लेने का निश्चय किया ताकि यदि प्रताप मुगल अधीनता स्वीकार न करे तो मुगल सुनाएं चारों ओर से मेवाड़ के पर्वतीय भाग में प्रविष्ट होकर प्रताप को पराजित कर सके। अकबर एक सीमा तक मेवाड़ को अकेला कर घेरने में अवश्य सफल हुआ, किन्तु उसकी प्रबल सैन्य शक्ति और कूटनीति प्रताप को पराजित करने और झुकाने में सफल नहीं हुई। दूर दृष्टि रखते हुए मुगल आक्रमणों से उत्पन्न होने वाले संकट से निपटने के लिए महाराणा प्रताप ने सामरिक आधार पर एक संकटकालीन प्रशासनिक योजना बनाई। यह प्रताप की अपनी मौलिक उपलब्धि थी। प्रताप ने प्रशासन के पुराने ढाँचे को बदल कर नवीन आवश्यकताओं के अनुसार एक ऐसे नवीन ढाँचे का निर्माण किया, जिसके द्वारा वह अपनी सीमित जनशक्ति और साधनों के बल पर मुगल आक्रमणों से मेवाड़ की रक्षा कर सका। प्रताप ने एक लचीले एवं विकेन्द्रित प्रशासनिक प्रबंध को जन्म दिया, जिसमें संकटकाल में समय-समय पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन करना आसान रहा। 1578-79 में कुम्भलगढ़-पतन के बाद के दौरान उसका केन्द्रीय प्रशासनिक स्थल राजधानी प्रधानतः भोमट प्रदेश के घने दुर्गम भाग में स्थित आवरगढ़ में रहा। किन्तु केन्द्रीय प्रशासन की व्यवस्था सदैव तत्काल स्थानांतरित किए जाने की स्थिति में रखी गई । मुगल सैन्य दल क निकट आने पर राजनधानी को तत्काल खाली करके अधिक घने वनीय भाग में ले जाया गया। राजपरिवार, सामंतों और अधिकारियों की स्त्रियों और बच्चों को उसके साथ सुरक्षित पहुँचाया जाता था। यही कारण है कि उस घने वनीय भाग में आज भी यत्र-तत्र छोटे-बड़े खंडहर दृष्टिगत होते हैं। 1579 ई. के लगभग चावंड में राजधानी कायम करने के बाद भी यह व्यवस्था चलती रही। शाहबाज खाँ के तीसरे आक्रमण (1579 ई) और जगन्नाथ कछवाहा के आक्रमण (1584 ई) के समय चावंड को इसी भांति खाली किया गया। इस प्रकार की व्यवस्थित एवं सुरक्षित कार्यवाहियाँ एक कुशल नेतृत्व ही कर सकता था यह प्रताप ने सिद्ध कर दिखाया। दीर्घकालीन युद्ध की आवश्यकता के अनुसार पर्वतीय भाग को जिलों में विभाजित करके प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किये गये, जिनको सैनिक एवं असैनिक दोनों कर्त्तव्यों के अधिकार दिये गये थे । उनको अपने क्षेत्र के आंतरिक प्रशासन और शत्रु के आकस्मिक आक्रमणों से निपटने के लिये तुरंत निर्णय लेने पड़ते थे। वे अपने क्षेत्र में सामरिक स्थलों एवं प्रवेशमार्गों के नाकों पर सैन्यदल रखने, गुप्त स्थानों, कंदराओं आदि में राजकीय धन-संपति, शस्त्रास्त्र आदि सुरक्षित रखने के लिये उत्तरदायी होते थे। निस्संदेह ही अरावली पर्वतमाला में रहने वाली आदिवासी भील जाति ने प्रताप की अनेक समस्याओं को हल करने में बड़ा सहयोग दिया। राजपूत परिवारों के स्त्री-बच्चों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व इन लोगों ने इतनी खूबी से निभाया कि एक बार भी ऐसा अवसर नहीं आया जबकि कोई स्त्री-बच्चे मुगल सैनिकों के हाथों में पड़े हों। इस भांति रसद आदि लाने-ले जाने, संदेशवाहन और गुप्तचर विभाग के कार्य-संचालन में भील लोगों ने बड़ा सहयोग दिया। वे पहाड़ों के गुप्त और विकट मार्गों से परिचित थे और बिना थके मीलों 215
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२१५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।