मिली । प्रताप द्वारा अब्दुल रहीम खानखाना की स्त्रियों एवं बच्चों की पूरी हिफाजत और सम्मान के साथ वापस लौटाने की बात इतिहास प्रसिद्ध है । प्रताप के दरबार में नासिरदी जैसा उच्च कोटि का चित्रकार फला-फूला था। प्रताप अथवा उसके अनुयायियों का एक भी ऐसा कृत्य इतिहास में नहीं मिलता,जिससे धर्मान्धता और कट्टरता प्रकट होती हो। अकबर की मृत्यु के बाद ही असहिष्णुता और कट्टरता ने पुनः सिर उठाया और औरंगजेब के काल तक पुनः भीषण स्थिति पैदा हो गई । डॉ श्रीवास्तव लिखते हैं- “यदि अकबर की धर्म-समभाव और सभी समुदायों को समानता प्रदान करने की नीति आगे सम्पूर्ण मुगलकाल में कायम रहती तो आने वाली पीढ़ी अवश्य प्रताप को दोषी ठहराती । किन्तु जहांगीर ने आधे मन से उसका पालन किया। शाहजहां ने अकबर से पहिले की स्थिति की ओर लौटने की प्रवृत्ति दिखाई और औरंगजेब ने तो अकबर की नीति को समूल उखाड़ कर कट्टरपंथी इस्लामिक राज्य कायम कर दिया। मनुष्य जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु होती है उसकी आत्मा की स्वतन्त्रता, उसके विश्वासों और विचारों की स्वतन्त्रता । उस पर जब प्रहार होता है तो वीर और साहसी लोग प्राणार्पण करके भी मुकाबला करते हैं और जो लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं,वे पराधीन हो जाते हैं। प्रताप ने जो निर्णय लिया और निश्चय किया उसको अन्तिम दम तक निभाया । इतिहास साक्षी है कि प्रताप का निर्णय गलत नहीं था। 4. महाराणा व मुगल साम्राज्यवाद मुगल भी तुर्कों और पठानो की भांति विदेशी जाति के लोग थे, जिन्होंने आक्रमण करके उत्तरी एवं मध्य भारत पर अधिकार कर लिया था। अकबर ने पठान शक्ति के हास, पठानों व हिन्दुओं के वैमनस्य और राजपूत एवं अन्य हिन्दू शक्तियों के ग्रह-कलह का अपनी दूरदर्शिता एवं कूटनीतिज्ञता से लाभ उठाकर मुगल शक्ति को बलवान बना लिया था। प्रताप अन्य राजपूत राजाओं की भांति मुगलों की दासता स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं था। राजस्थान के राजपूत और प्रधानतः मेवाड़ के राजपूत विदेशी सत्ता के साथ निरंतर संघर्ष करते रहे थे और विदेशी शासन के अस्थायी स्वरूप और शासन परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए कार्यवाही करते रहे थे। प्रताप को अपने वंश के गौरवपूर्ण इतिहास का अहसास था और महाराणा कुम्भा और सांगा जैसे पूर्वजों की परम्परा और आदर्श उसके सम्मुख थे। मेवाड़ को सांगा और प्रताप के बीच के काल में तथा उससे पूर्व अलाउद्दीन खिलजी के समय विदेशी जाति के प्रभुत्व का संकट देखना पड़ा था, मेवाड़ के शासक यां तो लड़ते रहे या उन्होंने सम्मानजनक सुलह आदि अवश्य करली, किन्तु दासता स्वीकार नहीं की ।महाराणा ने सुलह या सम्मानजनक संधि का सदा प्रयत्न किया ।यही कारण था कि प्रताप ने अकबर द्वारा प्रेषित चार-चार दूतमंडलों का पूरा स्वागत किया और तीसरे राजदूतमंडल के साथ प्रताप ने अपने कुंवर अमरसिंह के साथ मेवाड़ का दूतमंडल भी आगरा भेजा। किन्तु अकबर प्रताप को भी उसी स्थिति में अधीन वनाना चाहता था, जिसमें कि अन्य राजपूत राजा थे। उससे स्थिति का अर्थ था मेवाड़ का महाराणा मुगल दरवार में हाजिर होकर सिजदा करे, मनसबदार बनकर मुगल साम्राज्य के विस्तार एवं दृढ़ता के लिये अपनी शक्ति एवं सेनाओं का उपयोग करे और मेवाड़ को मुगल सम्राज्य की जागीर भूमि के रूप में स्वीकार करे। 5. अकबर के साम्राज्य का स्वरूप- 'संघीय नहीं' फारसी तवारीखों, राजस्थान के प्राचीन साहित्य, तत्कालीन राजपूत धारणाओं एवं परम्पराओं तथा तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का अध्ययन करने से डॉ. त्रिपाठी का यह मत सही प्रतीत नहीं होता है कि अन्य राजपूत राजाओं ने ईमानदारी, विश्वास और विवेक से तथाकथित “मुगल साम्राज्यी संघ” में शरीक होना स्वीकार किया। डॉ. त्रिपाठी Mughal 211
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