पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२०८

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(4) राणा प्रताप की दूरदर्शितापूर्ण रणनीति एवं कूटनीति, उसका चतुर तालमेल तथा दक्ष सैन्य संगठन एवं संचालन, जिनके कारण वह विशाल सेना के आक्रमणों एवं मुगल शक्ति के तमाम प्रकार के दबावों, धमकियों एवं कूटनीतिक चालों का सामना कर सका तथ अपनी सेना की अल्प संख्या और सीमित साधनों के बावजूद मुगल शक्ति को परास्त करने में उसके नेतृत्व कर सका। (5) मुगल बादशाह को अपने सम्राज्य के विभिन्न भागों में प्रधानतः बिहार एवं बंगाल तथा उत्तर-पश्चिमी सीमांत भाग में विद्रोहों एवं उपद्रवों को दबाने के लिये निरंतर अपनी सेनाओं का उपयोग करना पड़ा। इन कठिनाइयों के कारण अकबर को बराबर मेवाड़ से सेनाएं वापस बुलानी पड़ी। इसके कारण प्रताप को राहत मिलती रही और अपनी सैन्यशक्ति को पुनर्व्यवस्थित करने के लिये समय मिलता रहा। स्वर्गवास से पूर्व सफलताएं 1588 ई. के अंत तक चित्तौड़गढ़ और मांडलगढ़ के किलों तथा अजमेर को उनको जोड़ने वाले अंतर्वर्ती क्षेत्रों के अतिरिक्त प्रायः सारे मेवाड़ प्रदेश को वापस ले लेने के बाद प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम आठ वर्ष शांतिपूर्वक चावंड में राज्य करते हुए बिताये । चित्तौड़गढ़ एवं मांडलगढ़ पर अधिकार करने का विचार छोड़ रखा। इसके कारण थे: 1.) वे अजमेर के निकट और मालवा की ओर जाने वाले मार्ग में स्थित थे 2.) इन किलों को मुगलों से छीनने के लिये विशेष बड़ी तोपें और बड़ी सुसज्जित सेना की आवश्यकता होती तथा अकबर के लिये इस प्रकार की कार्यवाही सीधी चुनौती होती जिससे प्रताप द्वारा वांछित शांति और अनाक्रमण की स्थिति का बना रहना संभव नहीं होता । 3.) इन किलों के विजय के लिये तथा जीतने के बाद उनकी रक्षा के लिये उसके लिये बड़े धन का व्यय और बड़ी संख्या में सैनिकों का बलिदान जरूरी होता,जो प्रताप नहीं चाहता था। 4.) उसने अपने पिता द्वारा शासित मेवाड़ का अधिकांश प्रदेश हस्तगत कर लिया था और वह मेवाड़ की स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा हेतु अनिवार्य भावी युद्ध के लिये अपनी स्थिति को अधिकाधिक सुदृढ़ करना चाहता था । इसलिये वह इस दुस्साहसपूर्ण कार्यवाही से वचा रहा । प्रताप ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में चावंड को व्यवस्थित राजधानी का स्वरूप प्रदान करने, उदयपुर नगर को बसाने,पर्वतीय इलाके के भीतर और बाहर प्रशासनिक एवं सैनिक व्यवस्था में सुधार करने और उनको अधिक सुदृढ़ बनाने तथा राज्य के लोगों की समृद्धि के लिये उत्पादन, उद्योग-धंधों और व्यापार की अभिवृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया। 19 जनवरी,1597 ई.को इस अप्रतिम योद्धा ने 57 वर्ष की आयु में चावंड के सीधे सादे राजमहलों में अंतिम सांस ली । ऐसा माना जाता है कि बाघ का शिकार करते समय एक बड़े धनुष की प्रत्यंचा खींचने के प्रयल में प्रताप के शरीर को ऐसा झटका लगा कि उसकी आंतें आहत हो गईं, जिससे कुछ दिन पीड़ित रहने के बाद उसका देहान्त हो गया। चावंड से ढ़ाई किलोमीटर दूर बंडोली गांव के निकट बहने वाले नाले के किनारे उसका दाह-संस्कार किया गया, जहां उसकी स्मारक-छतरी विद्यमान है। स्मारक-स्थल पर अब एक तालाब बांध दिया गया है और पुराने स्मारक का जीर्णोद्धार करके एक नई छतरी बना दी गई है। राणा प्रताप की मृत्यु से मेवाड़ के लोग शोकसंतप्त हो गये। मेवाड़ के बाहर के प्रदेशों में भी इस उत्कृष्ट मानव के दिवंगत होने पर लोगों ने शोक प्रकट किया। कहा जाता है कि लाहोर में जब अकबर के पास प्रताप के देहावसान का समाचार पहुंचा तो वह भी एक बार अपने अदम्य प्रतिद्वंदी की मृत्यु पर उदास हो गया और शोक प्रकट किये बिना नहीं रह सका। 208