पर आक्रमण करेगा। वह ऐसा कब करेगा, यह उसके साम्राज्य की उत्तर-पश्चिमी समस्या के परिणामों पर निर्भर करेगा। अतएव प्रताप ने निर्णय किया कि- 1. अकबर को आक्रमण का बहाना उपलब्ध न कराएगा। 2. वह उत्तर की ओर से गुजरात और मालवा की ओर जाने वाले मार्गों को खुला रखेगा तथा मुगल काफिलों अथवा सैन्य-दलों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचावेगा। यही कारण है कि मुगल सत्ता के साथ तत्काल टकराहट से बचे रहने की दृष्टि से अजमेर से मालवा के मार्ग में पड़ने वाले चित्तौड़गढ़ एवं मांडलगढ़ क्षेत्र को प्रताप ने मुगलाधीन छोड़ दिया। 3. मेवाड़ राज्य के शेष मुगलाधीन इलाकों को मुगल अधीनता से स्वतंत्र करना। 4. सम्पूर्ण मेवाड़ में कृषि, व्यवसाय, उद्योग-धन्धों को तेजी के साथ व्यवस्थित करना, जिससे मेवाड़ राज्य की तीव्र आर्थिक उन्नति हो सके और खुशहाली फैल सके। 5. सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था करना, ताकि मुगल सेना के साथ भविष्य में होने वाले युद्ध में वह अधिक क्षमता और सफलता के साथ टक्कर ले सके। सेना के प्रशिक्षण आदि पर ध्यान देना। राणा प्रताप ने 1588 ई. के मध्य तक दो वर्षों के भीतर मेवाड़ का सम्पूर्ण पश्चिमी भाग और चित्तौड़गढ़ एवं मांडलगढ़ का क्षेत्र छोड़कर अधिकांश पूर्वी भाग अपने अधीन कर लिया। 1586-1587 ई. के दौरान प्रताप ने अधिकांशतः पहाड़ी भाग के सभी स्थानों से मुगल सैनिकों का सफाया करने और सुव्यवस्था करने की कार्यवाही की। 1587 ई. में वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद प्रताप ने अक्टूबर के प्रारम्भ में अपनी सेना का एक बड़ा दल कुंवर अमरसिंह के नेतृत्व में पूर्व की ओर रवाना किया, जिसने उदयपुर, देबारी, मोही, मदारिया, दिवेर, मांडल, जहाजपुर आदि स्थानों से मुगल थाने उठाकर सर्वत्र मेवाड़ राज्य की व्यवस्था कायम कर दी। इसके साथ-साथ मेवाड़ का संपूर्ण पश्चिमी मैदानी भाग स्वंतंत्र करा लिया गया। इस भांति प्रताप ने लगभग छत्तीस मुगल थानों पर अधिकार कर लिया और मुगल सैनिक या तो लड़कर मारे गये अथवा जान बचाकर भाग निकले। प्रताप ने नवीन व्यवस्था में एक ओर कुम्भलगढ़ से लेकर सराड़ा एवं छप्पन तक तथा दूसरी ओर गोड़वाड़ (देसूरी) से लेकर आसींद एवं भैसरोड़गढ़ तक सभी पर्वतीय नाकों पर अपनी सुदृढ़ सैनिक व्यवस्था कायम कर दी। जब अकबर को 1589 ई. के प्रारंभ में लाहौर में राणा प्रताप की इन विजयों के समाचार मिले तो वह जहर के बूंट पीकर रह गया । इस भांति चौदह वर्षीय शान्ति-काल 1585-1600 ई. शुरू हुआ, जो राणा प्रताप के देहान्त 1597 ई. के तीन साल बाद तक कायम रहा। 1598 ई. में अकबर लाहोर से फतहपुर सीकरी लौटा और उसके बाद ही 1599 ई. में प्रताप के उत्तराधिकारी राणा अमरसिंह को अधीन करने के लिये उसने पुनः मेवाड़ विरोधी सैनिक अभियान शुरू करने का निश्चय किया। बादशाह अकबर अपने जीवन काल में (अकबर की मृत्यु 1605 में हुई) मेवाड़ को अधीन करने का मंसूबा पूरा नहीं कर सका। सैनिक व प्रशासनिक सुधार गाँवों में पंचायतें पुनः काम करने लगीं। जागीर-व्यवस्था पहिले की भांति मैदानी इलाके में पुनः जीवित हो गई, जो जिला प्रशासन की सैनिक एवं आर्थिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहयोग करने लगी। सभी बड़ी जागीरें उन राजपूत वंशी खांपों, चूंडावतों, झालाओं, राठौड़ों, चौहानों, पंवारों, आदि को वापस बहाल कर दी गईं, जो पहिले उनके कब्जे में थी। इस प्रकार झाला राजराणा देदा को बड़ी सादड़ी, चूंडावत रावत जैतसिंह को सलूंबर, राठौड़ 203
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