अकबर-प्रताप का अनिर्णित युद्ध तथा मेवाड़ का लम्बा संघर्ष 1. अकबर की असफलता का परिणाम मुगल सेना को मेवाड़ में जो असफलता मिली उससे बादशाह अकबर निराश और परेशान हुआ। उसने मेवाड़ की समस्या को जितनी छोटी और आसान माना था, वह वैसी सिद्ध नहीं हुई। उसकी प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। उसका अहंकार आहत हुआ। यद्यपि हल्दीघाटी से बाहर निकल कर खुले मैदान में लड़ने के कारण प्रताप को अपने कई वीर एवं अनुभवी साथियों से हाथ धोना पड़ा, जिसका उसको अविस्मरणीय दुःख रहा, किन्तु इस युद्ध एवं जून-सितंबर के मुगल-अभियान की असफलता ने उसका आत्मविश्वास एवं मनोबल बढ़ा दिया। वह पहाड़ी इलाके में मुगल सेना को परास्त कर सकने की दृष्टि से पूरी तरह आश्वस्त हो गया और वह अधिक उत्साह और आशा के साथ मुगल विरोधी सैनिक एवं राजनैतिक-कूटनीतिक कार्यवाहियों में अग्रसर हो गया। भोमट इलाके में कोल्यारी के निकट कमलनाथ पर्वत पर स्थित आवरगढ़ में प्रताप ने अपनी अस्थायी राजधानी कायम की, जहां पर चावंड की भांति प्राचीन किले और भवनों के खंडहर आज भी दृष्टिगत होते हैं। मानसिंह के लौटते ही प्रताप ने गोगुंदा पर पुनः अधिकार कर के वहां मांडण कुंपावत को नियुक्त किया। वहां से उसने मजेरा गांव के निकट राणेराव के तालाब पर मुकाम किया, जहाँ से उसने मेवाड़ के मैदानी इलाके में सेना भेजकर कई स्थानों से मुगल थानेदारों को मार भगाया। उसके पश्चात वह कुम्भलगढ़ पहुंचा, जहां उसने महता नर्वद को किलेदार नियुक्त किया। इसी दौरान मेवाड़ में मुगल असफलता (जून-सितंबर) का लाभ उठाकर उसने मारवाड़, ईडर, बूंदी, सिरोही, जालोर, डूंगरपुर, बांसवाडा आदि राज्यों से सम्पर्क करके उनको एक साथ मिलकर मुगल-विरोधी कार्यवाहियां करने के लिये प्रोत्साहित किया। इस भांति प्रताप राजस्थान में एक अस्थायी मुगल विरोधी संगठन बनाने में सफल हो गया। मेवाड़ के पुरम्परागत अधीनस्थ सहयोगी बांसवाड़ा और डूंगरपुर राज्यों के शासकों, रावल प्रताप और रावल आसकरण को भी, जिन्होंने मुगल शक्ति से भयग्रस्त होकर हल्दीघाटी युद्ध के समय राणा प्रताप का साथ नहीं दिया था, प्रताप ने मुगल विरोधी कार्यवाहियों में मेवाड़ के साथ सहयोग करने के लिये बाध्य किया । 2. अकबर के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण सितंबर, 1576 ई. के मध्य में ख्वाजा साहब की बरसी पर अकवर अजमेर आया। वहां वह मेवाड़ सहित दक्षिणी राजपूताने को पूरी तरह अधीन करने की योजना बनाने लगा। गोगुंदा में मुगल सैनिकों की दुर्दशा के समाचार सुनकर उसने मानसिंह और आसफ खाँ को बुला भेजा। बादशाह ने बड़ी नाराजगी प्रकट की और मुगल सैनिकों की बदहाली के लिये उनको जिम्मेदार ठहराया, चूंकि उन्होंने रसदं आदि के लिये राणा के प्रदेश में लूटपाट नहीं की। बादशाह ने दोनों का दरबार में आना बंद कर दिया। उसके विपरीत गाजी खाँ बदख्शी, मिहतर खाँ, अली मुराद उज्बेक, खंजरी तुर्क और बदायुनी आदि की पद्-प्रतिष्ठा में वृद्धि की । अकबर ने प्रताप द्वारा नये मुगल-विरोधी संधि-संगठन को तोड़ने और राणा प्रताप को पहाड़ी प्रदेश में चारों ओर से घेर कर दबोच लेने की राजनैतिक-सैनिक व्यूह-रचना तैयार की ! उसने तरसुन खां, रायसिंह और सैयद हाशिम वरहा को जालोर और सिरोही पर आक्रमण हेतु भेजा । उन्होंने वहां के शासकों को मुगल अधीनता स्वीकार करने हेतु बाध्य किया। उसके बाद उसने हाशिम बरहा और रायसिंह को गुजरात की सीमा स्थित नाड़ोत में नियुक्त किया, जहां से वे उस इलाके की ओर राणा की गतिविधि पर नजर रख 196
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