नौरोजा के लिये अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। फिर भी कितने ही राजपूतों ने अपनी मर्यादा भंग कर दी है। इस विक्री में राजपूतों के बहुमूल्य पदार्थ विक चुके हैं। क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाजार में बिकेगा? प्रताप ने अपना सर्वस्व त्याग किया है, क्या अब वह अपने स्वाभिमानी गौरव को वेचना चाहता है। जो अब तक विके हैं और जिनकी मर्यादा बाजार में खरीदी गयी है, वे साहसहीन थे - उन्होंने अपने आपको शक्तिहीन समझा था। इसलिए अनके जीवन का यह उपहास हुआ। क्या अब हमीर के वंश का भी यही दृश्य होने वाला है ? आज तक संसार राणा प्रताप के स्वाभिमान, पुरुषार्थ और साहस को देख कर चकित है। क्या संसार का वह आश्चर्य समाप्त होने वाला है ? इस जीवन में कुछ भी अनित्य नहीं है। सब का नाश होने वाला है। बाजार में जिसने राजपूतों के गौरव की खरीद की है, वह भी एक दिन मिटने वाला है। उस दशा में हमारे वंश का गौरव राणा प्रताप के द्वारा ही फिर सम्मान प्राप्त करेगा। उस दिन की प्रतीक्षा में राजस्थान के सम्पूर्ण राजपूतों की आँखें लगी हुई हैं।" राठौर पृथ्वीराज की इस ओजस्वी कविता को पढ़कर प्रताप के अंतःस्थल में उत्साह की अटूट लहरें उठने लगी उसे एकाएक मालूम हुआ, मानो मेरे शरीर में दस हजार राजपूतों की शक्ति ने एक साथ प्रवेश किया है। वह तुरन्त अपने मन में कह उठा : मैं कभी भी अपने स्वाभिमान को नष्ट न करूँगा।" पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का फिर से निर्णय कर लिया। परन्तु उसके सामने जो कठिनाईयाँ थीं, इतनी भयानक हो गयी थीं कि उनमें रह कर भविष्य का कोई कार्यक्रम बनाना और उनमें सफलता पाना दुस्साध्य मालूम हो रहा था। ऐसे समय पर क्या करना चाहिए यह वात वार-वार राणा सोचने लगा। वह किसी प्रकार अव मुगल बादशाह का आश्रय नहीं चाहता था। इसलिए अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए उसने पहाड़ी स्थानों को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर चले जाने का विचार किया। उसने अपनी सभी तैयारियाँ की। उसके साथी सरदार भी उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गये। सव के साथ प्रतापसिंह ने अरावली पर्वत के शिखर पर चढ़ना शुरू किया। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उसके हृदय से जाती रही थी और वह सिंध नदी के किनारे पर बसे हुए सोगदी राज्य में चले जाने के लिए विवशतावश तैयार था। इसी समय मेवाड़ राज्य का युद्ध मंत्री भामाशाह राणा प्रतापसिंह से आ कर मिला और अपने जीवन-भर में जो सम्पत्ति उसने एकत्रित की थी, वह उसने प्रताप को ला कर सौंप दी। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे बारह वर्ष तक पच्चीस हजार सैनिकों का खर्च पूरा किया जा सकता था। भामाशाह से इस सम्पत्ति को पाकर प्रताप की शक्तियाँ फिर जागृत हो उठीं। उसने पर्वत छोड़कर चले जाने का विचार छोड़ दिया और अपने सरदारों तथा सामन्तों के साथ बैठकर चित्तौड़ के उद्धार का फिर से नया कार्यक्रम बनाने के लिए विचार करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसने राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली। इन दिनों में मुगल सेना को राणा प्रताप के किसी आक्रमण का भय न रह गया था। ऐसे मौके पर प्रतापसिंह ने मुगल सेनापति शहबाजखाँ पर एकाएक .. उसके सैनिक मारवाड़ की तरफ भाग
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१८७
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