उसने कठोर भूमि का प्रयोग किया। विलासिता का यह परित्याग राणा प्रताप ने न केवल अपने जीवन में किया, वल्कि उसने परिवार और वंश वालों के लिए भी इस प्रकार के कुछ कठोर नियम बना दिये और आदेश दिया कि जब तक हम लोग चित्तौड़ को स्वतंत्र न करा लेंगे, सीसोदिया वंश का कोई भी व्यक्ति - स्त्री अथवा पुरुष सुख और विलासिता के जीवन से कोई सम्बन्ध न रखेगा। चित्तौड़ की स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए राणा प्रताप ने अपने और अपने वंश वालों के लिए जो कठोर आदेश निकाले, उनका पालन पूर्ण रूप से होने लगा। इस समय के पहले जो युद्ध के बाजे सेना के आगे बजा करते थे, वे आदेश के अनुसार सेना के पीछे बजने लगे। राजपूतों ने अपनी दाढ़ी-मूंछों के वालों को वनवाना बंद कर दिया। भोजन के बर्तनों के स्थान पर बड़े-बड़े वृक्षों के पत्तों का प्रयोग होने लगा। भूमि पर सोना आरम्भ किया गया। उसु समय के उन आदेशों की कितनी ही वातें आज तक राजस्थान के राजपूतों में पायी जाती हैं। वे लोग दाढ़ी मूंछों के वाल नहीं वनवाते और भोजन के समय अपने बर्तनों के नीचे किसी न किसी वृक्ष की पत्ती रख लेते हैं। इन दिनों में मेवाड़-राज्य की जो अधोगति हो गयी थी, उसे देखकर प्रताप के हृदय में एक असहाय वेदना उठा करती थी और उसके कारण वह प्रायः कह उठताः “अच्छा होता यदि सीसोदिया वंश में उदयसिंह का जन्म न हुआ होता अथवा राणा संग्रामसिंह के बाद सीसोदियां वंश का कोई व्यक्ति चित्तौड़ के सिंहासन पर न वैठता।" राणा संग्रामसिंह के शासन काल में मेवाड़ राज्य ने वड़ी उन्नति की थी। आमेर और मारवाड़ के राज्य मेवाड़ राज्य में शामिल हो गये थे और इन दोनों राज्यों के राजा उस समय इतने शक्तिशाली थे कि मारवाड़ के राजा ने दिल्ली के वादशाह के विरुद्ध युद्ध की तैयारी की थी। चम्बल नदी के किनारे पर वसे हुए बहुत से छोटे-छोटे राज्यों ने अपनी शक्तियाँ बना ली थीं। इन सव उन्नतियों का कारण मेवाड़ राज्य पर राणा संग्रामसिंह का शासन था। उसने अपने साथ-साथ सभी राजपूत राजाओं और सामन्तों को उन्नति करने का अवसर दिया था । सम्पूर्ण भारतवर्ष में राणा संग्रामसिंह ने सम्मान प्राप्त किया था। यदि वादशाह वावर के साथ युद्ध करने के पश्चात् उसकी आकस्मिक मृत्यु न हुई होती तो उसके बाद इस देश की राजनीतिक परिस्थितियाँ कदाचित इतनी पतित न होती, जितनी कि हुई। राणा संग्रामसिंह के बाद कोई योग्य शासक चित्तौड़ के सिंहासन पर न बैठा। राणा उदयसिंह ने अपने शासन-काल में मेवाड़ की वची हुई राजपूत मर्यादा का अंत कर दिया। वादशाह अकवर की महान् शक्तियों का अध्ययन करने के बाद राणा प्रताप ने चित्तौड़ का उद्धार करने के सम्बन्ध में अपने सरदारों को बुलाकर परामर्श किया और किसी भी दशा में मुगलों की पराधीनता से चित्तौड़ को निकालने का उसने निर्णय किया। मेवाड़-राज्य के सामन्तों को प्रताप सिंह ने नयी-नयी जागीरें दी और वादशाह अकवर के साथ युद्ध करने के लिए उसने कमलमीर। को केन्द्र बनाया । इन्ही दिनों में उसने कमलमीर, गोगूदा और पहाड़ी दुर्गों की मरम्मत करायो । राजपूतों की उसने भर्ती आरम्भ की और वड़ी तेजी के साथ उसने अपनी शक्तियों का संगठन आरम्भ किया। इन।सव कार्यों के लिए धन और जन - दोनों का प्रतापसिंह के पास अभाव था। सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह थी कि वादशाह अकवर के साथ युद्ध करके मेवाड़ राज्य के सभी शक्तिशाली सामन्त और सरदार मारे जा चुके थे और उसके बाद राज्य की परिस्थितियाँ बहुत दुर्वल अवस्था में चल रही थीं परन्तु साहसी प्रताप ने इन परिस्थितियों 1. कमलमीर के किले को अव कुम्भलगढ़ कहते हैं। 177
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