ही उसकी माँ अपने पति के साथ सती न हो सकी थी और अपने इकलौते पुत्र का पालन करने के लिए वह जीवित रही थी। इस चित्तौड़ पर विशाल मुगल सेना के आक्रमण करने पर विधवा माता ने अपने इकलौते वेटे पत्ता को युद्ध में भेजा था। सहीदास के मारे जाने के वाद और युद्ध में पत्ता के आगे बढ़ते ही संग्राम की अवस्था भयंकर हो उठी। इसी अवसर पर चित्तौड़ के महलों से निकल कर रानियाँ और राजपूत बालायें युद्ध में गयी थीं और शत्रुओं के साथ मारकाट की थी। उस समय मेवाड़ राज्य के राजपूतों की अवस्था देखने के योग्य थी। वे अब जीवित रहकर चित्तौड़ का पतन देखना नहीं चाहते थे। उस भयंकर युद्ध में राजपूत रमणियाँ मारी गयीं। अगणित संख्या में राजपूतों का संहार हुआ। मुगलों की तोपों और बन्दूकों से राजपूतों का भीषण रूप से सर्वनाश हो रहा था। शत्रु की तोपों और बन्दूकों का मुकावला करने के लिए राजपूतों के हाथों में धनुष बाण थे। इसी समय जयमल की छाती में शत्रु की एक गोली लगी। वह अपने घोड़े से गिर गया। अब राजपूतों की सेना निर्बल पड़ गयी और युद्ध में बचे हुए राजपूतों ने चित्तौड़ के वचने की आशा छोड़ दी। मुगल सेना का आक्रमण तेज होता जा रहा था। उसको रोकने के लिए आठ हजार राजपूत एक साथ आगे बढ़े, दोनों ओर के सैनिक और सरदार अधिक संख्या में इस समय मारे गये। राजपूत सेना इस समय बहुत कमजोर पड़ गयी। उसके बचे हुए थोड़े से राजपूत अब मुगल सेना को रोक न सके। उस समय अपनी विजयी सेना के साथ अकबर ने चित्तौड़ में प्रवेश किया। इस युद्ध में तीस हजार राजपूत मारे गये, उनमें सत्रह सौ मेवाड़ राज्य के सरदार, सामन्त और राणा वंश के निकटवर्ती सम्बन्धी थे । केवल ग्वालियर का तोमर राजा वच गया था। अन्तःपुर की रानियों, पाँच राजकुमारियों, दो बालकों और सामन्त सरदारों तथा सामन्तों की स्त्रियों ने युद्ध के समय जौहर व्रत में अपने प्राणों का बलिदान किया। वीर बालक पत्ता के मारे जाने पर युद्ध में उसकी विधवा माता और उसकी नव विवाहिता पत्नी ने अपने प्राणों को उत्सर्ग किया। जयमल की मृत्यु अकबर के हाथ से हुई। जिस वन्दूक की गोली से उसने जयमल को मारा, उस बन्दूक का नाम अकबर ने संग्राम रखा। इसका वर्णन अबुलफजल ने अपनी लिखी हुई पुस्तक में किया है । इस युद्ध में जयमल और पत्ता की बहादुरी देख कर अकबर बहुत प्रसन्न हुआ था। उसने उन दोनों राजपूत वीरों की कीर्ति को कायम रखने के लिए दिल्ली में किले के सिंहद्वार पर एक ऊंचे चबूतरे के ऊपर दोनों की पाषाण मूर्तियाँ बनवा कर लगवाई। अकबर के साथ युद्ध आरम्भ होने के पहले ही उदयसिंह चित्तौड़ छोड़कर गोहिल लोगों के पास चला गया था। ये गोहिल लोग अरावली पर्वत के राजपिप्पली नामक जंगल में रहते थे। कठिनाइयों के साथ कुछ दिन बिताकर वह गुहिलोत नामक स्थान पर चला गया। वह स्थान अरावली पर्वत की शैलमाला के भीतर है। चित्तौड़ पर अधिकार पाने के पहले उदयसिंह के पूर्वज बप्पा रावल ने इसी स्थान के पास कुछ दिनों तक अज्ञातवास किया था। अकवर के द्वारा चित्तौड़ के विध्वंस होने से कई वर्ष पूर्व उसी पहाड़ के बीच में उदयसिंह ने एक विशाल झील बनवाई और अपने नाम पर उदय सागर उसका नाम रखा। इस पर्वत की तलहटी में कितनी ही नदियाँ टेढ़े-मेढ़े आकार में प्रवाहित होती हैं। इनमें से एक नदी की धारा को रोक कर उदयसिंह ने एक विशाल बाँध बनवाया और उसके ऊपर पहाड़ के शिखर पर उसने एक छोटा-सा महल बनवाया। उसने उस महल का नाम नौचौकी रखा। इसके बाद उस महल के आस-पास और भी कितने ही महल बन गये और फिर थोड़े ही दिनों में उस स्थान पर एक नगर तैयार हो गया। उदयसिंह ने अपने नाम पर उस नगर का नाम उदयपुर रखा, जो नगर मेवाड़ की राजधानी माना गया। 174
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