, प्रमाण सम्पूर्ण विश्व का इतिहास है और संसार का प्रत्येक महान पुरुष अपने जीवन के तपस्वी दिनों का चित्र उपस्थित कर इस सत्य को स्वीकार करता है। सिंहासन पर बैठने के समय अकबर और उदयसिंह की अवस्था भी एक ही थी। दोनों तेरह वर्ष की अवस्था में सिंहासन पर बैठे थे। अकबर के जीवन की विपदायें उसके जन्म लेने के पहले से आरम्भ हुई थी और उद्यसिंह के जीवन में उनकी शुरुआत उसकी छह वर्ष की अवस्था में हुई थी। विद्वानों और इतिहासकारों के अनुसार अकबर और उदयसिंह - दोनों के जीवन निर्माण एक से होने चाहिए थे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। उदयसिंह जब चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा, उस समय वह अकबर के जीवन के बिलकुल विपरीत साबित हुआ। अकबर ने सिंहासन पर बैठने के बाद अपनी योग्यता और महानता का परिचय दिया। परन्तु उदयसिंह ने उसके बिलकुल विपरीत अपनी अयोग्यता और कायरता का परिचय दिया। इन दोनों के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने से ऊपर प्रकृति के जिस सत्य का उल्लेख किया गया है, उसमें संदेह पैदा होता है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। सही बात यह है कि उदयसिंह के जीवन-चरित्र के अध्ययन करने और उसको समझने में भूल की जाती है। सच बात यह है कि उदयसिंह ने अपने जीवन में न तो कठिनाइयों को देखा था और न कभी जीवन के संघर्षों का सामना करने की नौबत उसके जीवन में आयी थी। छह वर्ष तक वह चित्तौड़ के सुरक्षित दुर्ग में रहा था और उसके बाद बनवीर के आक्रमण से बचाने के लिए वह जैसलमेर के दुर्ग में पहुँचा दिया गया था वहाँ पर भी उसने एक राजभवन में ही अपना जीवन व्यतीत किया और उसके बाद अपने आप वह चित्तौड़ के सिंहासन पर पहुँच गया। जीवन की सरलता और कोमलता ने उसको कोमल और भीरू बना दिया था। जक्सतरत्तोस नदी के तट पर बसे हुए अपने फरगना राज्य को छोड़कर और वहाँ से भाग कर काबुल होता हुआ बाबर भारत में पहुंचा था और दिल्ली के सिंहासन पर बैठकर उसने जिस राज्य की नींव डाली थी, उसको साम्राज्य बना देने का कार्य अकबर ने किया। वह न केवल एक चतुर शासक था बल्कि दूसरे के हृदयों पर अधिकार करने का मंत्र भी वह जानता था । शासन की योग्यता के द्वारा उसने अपने छोटे-से राज्य को विस्तृत बनाया और जिनके राज्यों को लेकर उसने अपने राज्य में मिला लिया था,उनके हृदयों पर अपने उस मंत्र के द्वारा अधिकार किया था। इसी का यह परिणाम था कि जो हिन्दू राजा और नरेश उसके द्वारा पराजित हुए उन्होंने भी उसको जगद्गुरू दिल्लीश्वरो कह कर सम्बोधित किया था। भट्ट ग्रंथों के अनुसार अकबर ने दो बार चित्तौड़ पर आक्रमण किया था। लेकिन तवारीख फरिश्ता में अकबर के एक ही आक्रमण का वर्णन किया जाता है। भट्ट ग्रंथों के अनुसार चित्तौड़ के पहले आक्रमण में अकबर को सफलता नहीं मिली थी। चित्तौड़ के सरदारों और मेवाड़ राज्य के सामन्तों ने अपनी-अपनी सेनायें लेकर चित्तौड़ की रक्षा करने के लिए अकबर की फौज के साथ युद्ध किया था और मुगल बादशाह को पराजित किया था। उस युद्ध में राणा उदयसिंह की अविवाहिता एक उपपत्नी ने भी चित्तौड़ की सेना के साथ युद्ध-स्थान में जाकर दिल्ली की फौज पर आक्रमण किया था। उस मौके पर अकबर की फौज पीछे हट गयी थी और युद्ध बन्द हो गया था। उसके बाद भट्ट ग्रन्थों के अनुसार अकबर ने अपनी पूरी तैयारी के साथ दूसरी बार चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उस समय उसकी अवस्था पच्चीस वर्ष की थी। फरिश्ता इतिहास में केवल इसी युद्ध का वर्णन किया गया है। दिल्ली से मुगल सेना सन् 1567 ईसवी में चित्तौड़ की तरफ रवाना हुई और पण्डोली नामक स्थान से बस्सी जाने का जो मार्ग है, वहाँ पहुँचकर मुगल फौज ने अपनी छावनी डाली । जिस स्थान पर बादशाह की फौज 172
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