झालावाड़ नरेश की लड़की का विवाह एक राठौड़ राजकुमार के साथ होना निश्चय हुआ था। परन्तु राणा कुम्भा ने उस राजकुमारी का अपहरण किया और चित्तौड़ में लाकर उसने उसको अपनी रानी बनाकर रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि राठौड़ राजपूतों के साथ सीसोदिया वंश की जो मैत्री कायम हुई थी, वह राणा कुम्भा के इस व्यवहार से समाप्त हो गयी और दोनों वंशों के बीच फिर शत्रुता चलने लगी। राणा कुम्भा ने वड़ी योग्यता के साथ पचास वर्ष तक मेवाड़-राज्य पर शासन किया। अव उसका बुढ़ापा चल रहा था। इस बुढापे में उसके लड़के ने उसका वध किया। जिस लड़के ने अपने पिता के प्रति यह अधर्म किया, उसका नाम ऊदा था। कुछ लोग उसे उदयसिंह भी कहते थे। भट्ट ग्रंथों में उस ऊदा की बड़ी निन्दा लिखी गयी है। इस प्रकार सम्वत् 1525 सन् 1469 ईसवी में राणा कुम्भा की मृत्यु हुई । ऊदा के इस व्यवहार से सम्पूर्ण मेवाड़ के लोग उससे घृणा करने लगे। उदा प्रसिद्ध राणा कुम्भा का बेटा था। परन्तु उसका कोई अच्छा साथी न था। पिता की हत्या करने के कारण उससे अब और भी अधिक लोग घृणा करने लगे। वह पहले से ही अयोग्य और अकर्मण्य था। राणा कुम्भ के बाद उसने खुलकर अपनी अयोग्यता का परिचय दिया। आबू पर्वत पर देवड़ा नामक एक सरदार रहता था। वह मेवाड़ राज्य का सामन्त था। ऊदा ने उसके साथ मित्रता की और उसको प्रसन्न करने के लिए ऊंदा ने उस सामन्त को अपनी अधीनता से स्वतंत्र कर दिया। ऊदा ने इस प्रकार के और भी कार्य किये। उसने जोधपुर के राजा को साँभर, अजमेर और कुछ अन्य इलाके मित्रता की कीमत में दे दिये। अपने पिता की हत्या करके उसने जो अक्षम्य अपराध किया था, उससे वह सदा भयभीत बना रहता और किसी प्रकार की आपत्ति आने पर सहायता प्राप्त करने के लिये ही उसने देवड़ा तथा जोधपुर के राजा के साथ मैत्री पैदा करने की कोशिश की थी।1 ऊदा के इन कार्यों से मेवाड़ राज्य का पतन आरम्भ हुआ। राणा कुम्भा ने अपने जीवन भर के प्रयलों से मेवाड़ राज्य की जो उन्नति की थी, ऊदा ने पाँच वर्षों के भीतर ही उसका सत्यानाश कर दिया। मित्रता धन से खरीदी नहीं जाती। परन्तु ऊदा को इस बात का ज्ञान न था। उसने अपने राज्य का सत्यानाश करके जिसको मित्र बनाने की कोशिश की थी, वे कभी उसके काम न आये और न कभी उसका सम्मान किया। इस दशा में निराश होकर वह दिल्ली के मुसलमान बादशाह के पास गया और उसके साथ अपनी लड़की का विवाह कर देने का वादा करके उसने उससे सहायता माँगी। दिल्ली के बादशाह से मिलकर जब ऊदा दीवान खाने से बाहर जा रहा था, उसके मस्तक पर अचानक विजली गिरी, जिससे वह जमीन पर गिर गया और उसका प्राणान्त हो गया। बप्पा रावल के वंश के सम्मान की रक्षा भगवान ने की और हत्यारे ऊदा को जो फल मिलना चाहिये था, वही उसे मिला। राणा कुम्भा के सिंहासन का राजकुमार रायमल उत्तराधिकारी था, परन्तु राणा कुम्भा ने अपने जीवन काल में उसे राज्य से निकाल दिया था, जिससे रायमल ईडर चला गया था। राणा कुम्भा की मृत्यु के पाँच वर्ष बाद सम्वत् 1530 सन् 1474 ईस्वी में रायमल चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा और उसके बाद उसने ऊदा के अपराध का दंड देना अत्यन्त आवश्यक समझा । रायमल के इस निर्णय को जान कर ऊदा भयभीत हुआ और अपनी जिस समय ऊदा ने जोधपुर के राजा को अपने ये इलाके दिये थे, उससे दस वर्ष पहले सम्वत् 1515 में जोधाराव ने जोधपुर की प्रतिष्ठा की थी। 1. 150
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