अपनी पुस्तक में प्रकाशित किया है। बम्बई से रवाना होकर वे इंगलैण्ड चले गये। वहाँ पर सन् 1823 ईसवी के मार्च महीने में ‘ऐशियाटिक सोसाइटी' नामक सभा की स्थापना हुई थी। वहाँ जाकर आप उसके सदस्य हो गये और कुछ दिनों के वाद वे उसके पुस्तकालयाध्यक्ष बना दिये गये। उस सभा में उन्होंने अपने इस संग्रह का एक निबन्ध पढ़ा। उसे लोगों ने वहुत पसन्द किया। इसलिये कि उस समय तक योरोप के विद्वान राजपूत जाति के इतिहास के अपरिचित थे। 16 नवम्बर 1826 ईसवी को टॉड साहब ने अपनी चवालीस वर्ष की अवस्था में लंदन नगर के डाक्टर क्लटर वक की पुत्री से विवाह किया और उसके कुछ दिनों के बाद दोनों योरोप के देशों के भ्रमण को चले गये। सन् 1827 के मई मास में जनरल एसियाटिक सोसायटी में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ और सन् 1828 में उन्होंने अपने दो निबंध रायल एशियाटिक सोसाइटी नामक सभा में पढ़े । सन् 1829 ईसवी में टॉड साहव ने राजस्थान के इतिहास की पहली जिल्द अपने व्यय से छपवा कर प्रकाशित की और सन् 1832 में उन्होंने उसकी दूसरी जिल्द प्रकाशित की। इस इतिहास से योरोप, अमेरिका और हिन्दुस्तान के पढ़े-लिखे लोगों में उनकी बहुत ही प्रशंसा हुई और राजपूत जाति की कीर्ति सर्व भूमण्डल में फैल गयी । इंग्लैण्ड में रहने के समय टॉड साहब का स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी वे अपना समय विद्यानुराग में ही व्यतीत करते रहे । राजस्थान का इतिहास छप जाने के बाद उन्होंने चन्दवरदाई के 'पृथ्वीराज रासो' का अंग्रेजी अनुवाद छपवाने के लिए नमूने के तौर पर संयोगिता के कथानक को अंग्रेजी कविताओं में लिखा और उसे छपवाकर प्रकाशित किया, जिसे वहाँ के लोगों ने वहुत पसन्द किया। टॉड साहव का स्वास्थ्य विगड़ने के बाद फिर सम्हल न सका। 16 नवम्बर सन् 1835 को लंदन की लम्बर्ट स्ट्रीट के साहूकार के यहाँ उनको एकाएक मिर्गी का आक्रमण हुआ। उसमें 27 घन्टे तक मूर्छित रहने के बाद 17 नवम्बर सन् 1835 को 53 वर्ष की अवस्था में अपनी स्त्री, दो पुत्रों और एक पुत्री को छोड़कर टॉड साहव ने इस संसार से प्रयाण किया। उनका कद मध्यम दर्जे का और शरीर पुष्ट था। वे सदा प्रसन्न चित्त रहा करते थे। उनके जीवन में सादगी थी । राजपूताना के लोगों के बीच बैठ कर जाड़े में वे घन्टों आग तापते और उन लोगों की बातें सुनते थे। रास्ते में किसी दुखिया को देखकर उसकी सहायता करते। वे अपनी ख्याति के लिये कोई काम न करते थे पिंडारियों के साथ लड़ाई में विजय के वाद लूट के माल से कोटा से छ: मील पूर्व एक पुल वनवाया गया था। उस पुल का नाम लोग 'टॉड साहव का पुल' रखना चाहते थे। लेकिन टॉड साहब ने इसको पसन्द न किया और उनकी सलाह से उस पुल 1
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