अध्याय-17 राणा कुम्भा तथा सांगा का बचपन सम्वत् 1475 सन् 1419 ईसवी में राणा मोकल का बड़ा लड़का कुम्भा चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। उसे लोग कुम्भा जी के नाम से भी सम्बोधित करते थे, राणा मोकलं के मरने बाद एक साथ मेवाड़ राज्य की परिस्थिति बिगड़ गयी थी। इसीलिये पिता के मारे जाने पर अपनी असहाय अवस्था में कुम्भ को मारवाड़ के राजा से सहायता माँगनी पड़ी थी। वह मारवाड़ के राजा का भाँजा था। मोकल की छोटी अवस्था में मेवाड़ और मारवाड़ के सम्बंध बहुत बिगड़ गये थे और राजकुमार चूडा ने मारवाड़ पर आक्रमण करके मन्डोर नगर पर अधिकार किया था। लेकिन उसके कुछ समय के बाद दोनों राज्यों के बीच में संधि हो गयी थी। कुम्भा के सहायता माँगने पर मारवाड़ के राजा ने अपनी एक सेना भेजी थी और उसने आकर चित्तौड़ की पूरी सहायता की थी। उसके बाद कुम्भा चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। वह अपनी छोटी अवस्था से ही शूरवीर और प्रतापी था। राज्य में अनेक कमजोरियों के रहते हुये भी उसने बड़े साहस से काम लिया, विरोधी परिस्थितियों की उसने कुछ परवाह न की और बड़ी योग्यता के साथ उसने चित्तौड़ शक्तियों का संगठन किया। उसकी शक्तियों का ही यह परिणाम निकला कि उसके शासनकाल में मेवाड़ राज्य ने बड़ी तेजी के साथ उन्नति की। थोड़े ही दिनों के भीतर मेवाड़ की निर्बल शक्तियाँ शक्तिशाली बन गयीं। जो विरोधी राज्य चित्तौड़ को खा जाने के लिए तैयार थे, वे सब राणा कुम्भा को सम्मान की दृष्टि से देखने लगे। राणा कुम्भा से सौ वर्ष पहले आक्रमणकारी मुस्लिम सेना ने चित्तौड़ में आकर जिस प्रकार सर्वनाश किया था और मेवाड़ के राजपूतों को निर्बल बना दिया था, इस समय वहाँ के लोग उस सर्वनाश की बातों को भूल गये थे। इसी चित्तौड़ राज्य के राजा समरसिंह ने शहाबुद्दीन की प्रचंड सेना का सामना किया था और भारत की स्वाधीनता के लिए उसने अपने प्राणों का बलिदान किया था। वह समय अब बदल गया था और मेवाड़ राज्य में एक नया युग आरम्भ हुआ था। शहाबुद्दीन के आक्रमण से लेकर राणा कुम्भा के समय तक दो सौ छब्बीस वर्षों का समय बीता है और इस लम्बे समय में राजस्थान की भूमि पर अनेक प्रकार के परिवर्तन हुये हैं। खिलजी वंश के पिछले बादशाह के समय विजयपुर, गोलकुण्डा, मालवा, गुजरात, जौनपुर और कालपी जैसे कितने ही राज्यों के राजा लोग दिल्ली के सिंहासन को निर्बल समझकर अपनी-अपनी स्वतंत्रता का निर्माण करने लगे थे। राणा कुम्भा जिस समय चित्तौड़ 148
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