महाराज बप्पा ने बहुत-से विवाह किये थे। उनसे जो लड़के पैदा हुए थे, उनमें से कुछ सौराष्ट्र चले गये थे और उसके पाँच बेटे मारवाड़ चले गये थे। अपनी पचास वर्ष की आयु में महाराज बप्पा खुरासान राज्य में चले गये और वहाँ के राज्यों को जीत कर उन्होंने बहुत सी म्लेच्छ स्त्रियों के साथ विवाह किया, उन स्त्रियों से भी बप्पा के अनेक पुत्र एवं कन्यायें पैदा हुईं। एक सौ वर्ष तक जीवित रहने के बाद बप्पा की मृत्यु हुई। देलवाड़ा नरेश के एक प्राचीन ग्रन्थ से पता चलता है कि महाराज बप्पा ने इस्फनहान, कन्धार, काश्मीर, ईराक, ईरान, तूरान और काफरिस्तान आदि अनेक पश्चिम के देशों को जीत कर उन राजाओं की बेटियों से विवाह किया था और अन्त में साधु जीवन व्यतीत किया। सब मिलाकर बप्पा के एक सौ तीस संतानें पैदा हुई थीं और उससे पैदा हुए बेटे नौशैरा पठानों के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुए। उनके पुत्रों ने अलग-अलग वंशों की स्थापना की। हिन्दू स्त्रियों से अट्ठानवे पुत्र पैदा हुए थे, जो अग्नि के उपासक और सूर्यवंशी नाम से विख्यात हुए। भट्ट ग्रन्थों में लिखा है कि बप्पा के मरने पर मुसलमान उसके मृतक शरीर को जमीन में गाड़ना चाहते थे और . हिन्दू दाह क्रिया करना चाहते थे। इस बात को लेकर हिन्दू और मुसलमानों में बहुत विवाद बढ़ा। अन्त में बप्पा के मृत शरीर पर ढका हुआ कपड़ा हटा कर देखा गया तो शव पर सफेद रंग के हुए कमल थे। उन फूलों को लेकर मान सरोवर पर लगाया गया। फारस के नौशेरवाँ बादशाह के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की बातें कही जाती हैं। मेवाड़ के राजवंश के मूल प्रतिष्ठाता बप्पा रावल का यहाँ पर संक्षेप में जीवन चरित्र लिखा गया है। अब उसके जन्म के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है। पहले लिखा जा चुका है कि राजा शिलादित्य के शासनकाल में सम्वत् 205 में बल्लभीपुर का विनाश हुआ था और उसकी नवीं पीढ़ी में बप्पा रावल का जन्म हुआ। लेकिन राणा के महलों में जो ग्रन्थ पाये जाते हैं, उनसे जाहिर होता है कि सम्वत् 191 में और सन् 135 ईसवी में बप्पा रावल ने जन्म लिया था। एक शिलालेख से मालूम होता है कि सम्वत् 770 और 714 ईसवीं में चितौड़ का राजा मानसिंह मौर्य वंशी था और बप्पा रावल उस वंश का भान्जा था। राजा मानसिंह ने वप्पा रावल को पन्द्रह वर्ष की अवस्था में अपने राज्य का सामन्त बनाया था। उसके बाद चित्तौड़ राज्य के सामन्तों की सहायता से बप्पा ने वहाँ का राज्य अपने अधिकार में कर लिया। इस मतभेद में सही बात का निर्णय करना बहुत कठिन मालूम होता है लेकिन इसका निर्णय करने में सौराष्ट्र के सोमनाथ मन्दिर में मिले हुए एक शिलालेख से सहायता मिलती है। उसमें बल्लभीपुर नाम के एक सम्वत् का उल्लेख है जो विक्रम सम्वत् के 375 वर्ष बाद आरम्भ होता है। ऊपर सम्वत् 205 बल्लभीपुर के विनाश का सम्वत् लिखा गया है। यह 205 बल्लभीपुर सम्वत् जो विक्रम सम्वत् के बाद आरम्भ होता है, सम्वत् 375 में सम्वत् 205 जोड़ देने से 580 विक्रम सम्वत् आता है। इसी सम्वत् और सन् 524 ईसवी में म्लेच्छों ने बल्लभीपुर का विध्वंस किया था। मौर्य-राजाओं के समय के शिलालेख से जाहिर होता है कि बप्पा का जन्म सम्वत् 770 में हुआ। अगर इस 770 में से 580 घटा दिये जायें तो 190 बाकी रहते हैं। इस 190 में 1 वर्ष जोड़ देने से भट्ट कवियों का उल्लेख सही हो जाता है, जिसमें बताया गया है कि सम्वत् 191 में बप्पा का जन्म हुआ था। यहाँ पर समस्त मतभेद नष्ट हो जाते हैं और एक वर्ष के अन्तर को भुलाकर, इस बात को सही मान लेना पड़ता है। इस हिसाब से इस सत्य को सभी लोग स्वीकार नहीं करते । कुछ ऐसे भी उल्लेख मिलते है जिनसे पता चलता है कि सम्वत् 810 में बप्पा ने सन्यास ले लिया था, यह बात मेवाड़ के इतिहास में भी लिखी जाती है। 1 1. 117
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/११७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।