चोर-अमरकोट के पतन के बाद सोळा राजा अपनी राजधानी से उतार तरफ पन्द्रह मील की दूरी पर चोर नामक नगर में जाकर रहने लगा। उसी राणा की। निर्वासित होने के बाद भी वह अपनी इस पदवी को धारण किये । जिरा in yजो ) किसी समय सिकन्दर मेनाण्डर और कासिम का-जो खलीपा वलीद का गदार शासगा। किया था और जिन्होंने बादशाह हुमायूं को उस सगय अपने यहाँ शरण दी भी, जन I पराजित होकर भारतवर्ष का सिंहासन छोड़कर भागा था, आज उस संश के राजा परिनारसी यह अवस्था थी कि यह रोटी के टुकड़ों के लिए अपनी लाइकियों और महानी का fri धर्मावलम्बियों के साथ कर देते थे। उनके इरा परान का कारण की राधा थी, जो मिटाने के लिए उस वंश के लोगों के पास कोई दूसरे साधन थे। अमरकार बाद भी वंश के लोग जहाँ पर जाकर रहे थे, यहाँ उनका कोई चावसाय न था, 'जीयन 1.hti fotu उनके अधिकार में कोई साधन न था। यह स्थान पर मि का एक II II, TETrail होता था। प्रत्येक तीसरे वर्ष यहाँ अकाल पाहता था, जिसका कारण सर्व साया sified । रहना कठिन हो जाता था। इस दशा में जिनके पास मान- पीने का पता था, अपने सम्पन्न पड़ौनियां का आश्रय लेते थे और अधिक मेरा नाम. iiii जाकर वहाँ के लोगों की शरण लंत । ठनक न दिनों में जो सहायता करने की भी लड़कियाँ और बहनें देकर ठनक ठपकार का बदला दी। यह गाना - lating, अङ्ग था, जिसने अपनं दुर्दिनों में पलाम धर्मावलम्बियों की समय -14 1112110 और उनके साथ अपनी बेटियों के वियाह करक अपने चंण की पवित्रता माना। इस प्रकार सोढा और झारीजा की कड़ियाँ हिन्द्र मुसलमानों को या airligirl बनाने का काम किया था। भूय में माता रामनय यया नहीं कर पा की रक्षा उसी समय तक करता है, जब नक ठाक प्राण सुर्ग कि ymin तड़पने लगता है तो टग्य समय यह सब कुछ भूल जाता है। अकोट it is और चार नगर में जीवन निर्वाह करने के दिनों में गोहा यंग rivi की 54 mins गयी थी। उनक सन्तामन के मुन्द्र पार्मिक तथा सामाजिक अन्धन दी। यहां शुत्र गट्टा में वं ठन कार्यों को करने के लिए किया या निहि ५:32 मल होने पर भी अपने हृदय में धार्मिक और नियमों उन्होंने अपनी जिन मार्ग लड़कियों और कला faaee rare marti मि, उनको उन्नति अनन्या कभी नहीं किया नीदं लड़कियां उनका गीजिसे अपनायन में गरमा समitra आज मांटा लंग के उन्माद मीर गल्ला मी, मी indir खोया अपनी लाकर गांगी 47::---- था। इन दर में जैसलमेर, हम ----- मलं है,जिटल popote ways किन नहीं लजा
पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/९३
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