उनकी सेनाओं ने कारागार पर आक्रमण किया। मूलराज को कैद से छुड़ाकर वे लोग कारागार से उसे लाने की कोशिश करने लगे। रावल मूलराज की समझ में यह न आया कि मुझे कैद से कौन छुड़ा रहा है। उसने युवराज रायसिंह पर संदेह किया और सशंकित होकर उसने कारागार से निकलने से इनकार कर दिया। इस पर जोरावर सिंह ने अपनी माता की सभी बातें उसको बताई। उन पर विश्वास करके मूलराज कारागार से बाहर निकला और फिर अपने राजसिंहासन पर बैठा। रावल मूलराज के सिंहासन पर बैठने के समय रायसिंह अपने महल में सो रहा था। नगाड़ों के बजते ही उसकी नींद खुल गयी। जागने पर उसने सुना कि पिता जी ने कारागार से निकलकर और सिंहासन पर बैठकर राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया है। इसी समय एक राज कर्मचारी निर्वासन के दण्ड की आज्ञा लेकर रायसिंह के पास आया और उसने लिखा हुआ आदेश रायसिंह को दिया। साथ ही उसने कहा- "काला घोड़ा बाहर तैयार खड़ा है।" राजपूतों में प्रचलित प्रथा के अनुसार निर्वासन का दण्ड पाने पर निर्वासित को काले घोड़े पर बैठकर राज्य से निकल जाना पड़ता था। उसके वस्त्र, उसकी पगड़ी और उसकी सभी दूसरी चीजें काले रंग की होनी चाहिये। रायसिंह ने दण्ड को स्वीकार किया। वह नियम के अनुसार काले घोड़े पर बैठकर जैसलमेर से बाहर निकला। जो सामन्त और दूसरे लोग रायसिंह के पक्षपाती थे। वे सभी जैसलमेर से निकलकर उसके साथ चले गये। राज्य की दक्षिणी सीमा के अन्त में कोटरा नामक स्थान पर पहुंचकर सामन्तों ने रायसिंह से बातचीत की और आपस मे वे लोग निश्चय करने लगे कि इस नगर को लूट लेना चाहिए। रायसिंह ने इस बात का विरोध किया और कहा- "राज्य की समस्त भूमि हमारी जननी है। इसे हम मातृभूमि कहते हैं। इसलिए हम लोग अपनी मातृभूमि पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं कर सकते। जो अत्याचार करेगा, वह हमारा शत्रु होगा।" रायसिंह की इन बातों को सुनकर सभी सामन्त चुप हो गये। फिर किसी ने ऐसी वात नहीं की। निर्वासित होकर रायसिंह जोधपुर चला गया और वहाँ पर उसने दो वर्प छ: महीने व्यतीत किये। जोधपुर के राजा विजय सिंह ने सम्मान के साथ अपने यहाँ उसको स्थान दिया। यद्यपि रायसिंह अपने अप्रिय स्वभाव के कारण उस सम्मान को पाने का अधिकारी न था। जोधपुर में रहकर उसने उस राज्य के एक महाजन से कर्ज लिया और बहुत दिनों तक जब उस कर्ज की अदायगी न हुई, तो उस महाजन ने रास्ते में रायसिंह को रोककर उस समय अपने रुपयों की मांग की, जब वह अपने घोड़े पर बैठा हुआ राजा विजय सिंह के साथ शिकार खेलने जा रहा था। उस महाजन ने रायसिंह के घोडे की लगाम पकड़कर और उसको रोककर अपनी प्रार्थना की थी। रायसिंह ने लगाम को छोड़ देने के लिए कहा। लेकिन महाजन ने लगाम न छोड़ी और वह बिगड़ कर बाते करने लगा। यह देखकर रायसिंह ने अपनी तलवार से उस महाजन का सिर काटकर जमीन पर गिरा दिया और उसके बाद वह जैसलमेर की तरफ यह कहते हुए आगे बढा- "दूसरे राज्य में सम्मानपूर्वक रहने की अपेक्षा अपने राज्य में गुलाम होकर रहना भी अच्छा है।" 47
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