के चले जाने पर युद्ध करने वाले सैनिकों ने भी आश्रम से निकल जाने के लिए बाबा कृष्णदास से कहा। लेकिन उसने आश्रम नहीं छोडा और सैनिकों को जवाब देते हुए उसने कहाः "अगर तोप के गोले से ही मेरी मृत्यु का होना लिखा है तो उसे कोई मिटा नहीं सकता और अगर ऐसा नहीं है तो तोप के गोलों से मुझे कोई क्षति नहीं पहुंच सकती।" बाबा कृष्णदास के इस उत्तर को सुनकर सैनिक चुप हो गये। पूरे दिन गोलों की वर्षा होती रही और उन गोलों से बाबा का आश्रम और उसकी पुष्पवाटिका बिलकुल नष्ट हो गयी। परन्तु बाबा के शरीर को जरा भी आघात नहीं पहुँचा। कहा जाता है कि गोलों की इस भीपण वर्षा के समय कृष्णदास बिना किसी भय के अपने आश्रम में बैठा रहा। सायंकाल होते ही बाबा कृष्णदास ने युद्ध बन्द करने के लिए दोनो पक्ष के लोगों के पास संदेश भेजा। इसके बाद युद्ध बन्द हो गया और दोनों पक्ष के सैनिक युद्ध क्षेत्र से हट गये। इस प्रकार उस दिन जो युद्ध आरम्भ हुआ था, सायंकाल तक समाप्त हो गया। दूसरे दिन सवेरा होते ही फिर दोनों पक्षों में युद्ध की तैयारियाँ हुई। राजा रामसिंह अपनी सेना लेकर आगे वढा और उसने अपने चाचा बख्तसिंह पर आक्रमण किया। इस समय दोनो तरफ से तोपों में आग लगायी गयी। उनका धुआं चारो तरफ फैलकर ऊपर की तरफ उठा और उस धुएँ से युद्ध का सम्पूर्ण स्थान अन्धकारमय हो उठा। इसके कुछ ही समय बाद चम्पावत राजपूत सैनिक शत्रु की तरफ आगे बढे । रामसिंह के पक्ष के शूरवीर मेडतीय राजपूत अपनी राज भक्ति का परिचय देते हुए शत्रुओं की ओर बढे और उन लोगो ने अपने साथ के सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहाः "हम लोग युद्ध में या तो विजयी होंगे अथवा बलिदान होकर स्वर्ग की यात्रा करेंगे।" उनके इन वीरोचित शब्दों को सुनकर राजपूतों का उत्साह कई गुना बढ़ गया। इसके साथ ही युद्ध भीपण रूप में आरम्भ हुआ और शूरवीर राजपूतों ने अपने शत्रुओं पर भयानक मार आरम्भ की। ऊपर यह लिखा जा चुका है कि मारवाड़ के राजपूतों में मेडता के लोग अधिक साहसी और रण कुशल माने जाते हैं। इस युद्ध मे वहाँ के जो राजपूत सैनिक आये थे, इस युद्ध मे उन्होने शत्रुओं का भीषण संहार किया। वख्तसिंह के साथी चम्पावत लोगों ने मेड़ता के राजपूतों के साथ कठिन युद्ध किया और एक बार उन्होंने अपनी भयानक तलवारों के वल से मेडतीय राजपूतो को युद्ध क्षेत्र में भयभीत कर दिया। इस समय युद्ध-क्षेत्र में चारों तरफ से भयानक मार हो रही थी। तोपों की भयानक आवाज के साथ-साथ तलवारो की झंकार से कानो के परदे फट रहे थे। युद्ध के क्षेत्र में सैनिकों के कटे हुए शरीर बडी संख्या में दिखायी देने लगे। इस भयानक संग्राम में कोई भी पक्ष पीछे हटने की स्थिति में न था। दोनों पक्ष के लोग अपने-अपने शत्रुओं के संहार का निश्चय करके आगे बढ रहे थे। अभी तक युद्ध के परिणाम का अनुमान लगा सकना किसी के लिए सम्भव नहीं मालूम होता था। बुद्ध की इस परिस्थिति में मेडतीय राजपूतों का सरदार शेरसिह मारा गया। उसके गिरते ही उसका भाई अपनी सेना के साथ आगे बढा और उसने शत्रुओं के साथ भीपण युद्ध आरम्भ किया। इसी समय अहवा का शूरवीर सामन्त मारा गया। यह देखकर दोनों पक्ष की 421
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