पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/४०६

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1 का पेड़ कहा जाता है। इन पेड़ों से जो फूल खिलते हैं, उनसे बाग हमेशा शोभायमान रहता है। यह बाग मुझे बहुत प्रिय मालूम हुआ और उसमें कुछ देर तक विश्राम करने से मुझे बड़ा सुख मिला। इस बाग की अनेक चीजे सुन्दर, आकर्षक, शोभायमान और उपयोगी है। मण्डोर की राजधानी में खोज और अनुसन्धान के लिये आया हुआ एक अंग्रेज अपनी थकावट के समय इस बाग में पहुँच कर किस प्रकार शान्ति और सुख का अनुभव करता है, समझदार पाठक इसका अनुमान लगा सकेंगे। वह अपने अनुसन्धान के कार्य में लगा हुआ है। उसके नेत्रों के सामने आम के बड़े-बड़े वृक्ष खडे है। पास ही तिन्दू का एक विशाल वृक्ष है। कहा जाता है कि परिहार राजपूतो के अंतिम राजा नाहरराव के सामने अपने इन्द्रजाल का प्रदर्शन करते हुए किसी एक ऐन्द्रजालिक ने इस वृक्ष के अस्तित्व को कायम किया था। यह भी कहा जाता है कि इस वृक्ष की शाखा से गिरने के कारण उस ऐन्द्रजालिम की मृत्यु हो गयी थी।' इस वृक्ष की लम्बी डालियो पर वन्दर निर्भीकता के साथ चढते और उन पर कूदते एवम् विहार करते हैं। उस वृक्ष के पास जाकर मैंने देखा कि उसके नीचे दो राठोर राजपूत सोये हुए है और पास ही, उनके दोनो घोडे बँधे हैं। मण्डोर के पास जो पर्वत है, उसमे बहुत सी गुफायें हैं। उन गुफाओ में तपस्वी और सन्यासी लोग रहा करते हैं। उनके सम्बन्ध मे मेंने लोगो से अनेक प्रकार की बातें सुनी। ये गुफाये अत्यन्त सकीर्ण और इतने छोटे स्थानों में बनी हुई है कि उनमे किसी प्रकार वायु नहीं पहुँच सकती। मुझे इन बातों को सुनकर बहुत आश्चर्य मालूम हुआ कि उनमे रहने वाले तपस्वी और सन्यासी लोग बिना वायु के किस प्रकार जीवित रहते हैं। सायंकाल हो जाने के कारण अपने मुकाम पर लौट आने का समय हो चुका था। इसलिये वहाँ से लौटने के पहले में उस स्थान पर फिर गया, जहाँ पर मारवाड के शूरवीरो की प्रतिमायें है। उन सबके सामने खडे होकर मैने श्रद्धापूर्वक उन प्रतिमाओ के दर्शन किये और फिर उनको प्रणाम करके में अपने मुकाम पर लौट आया। 13 नवम्बर-राजा मानसिंह ने अपने महल मे आज भोजन करने के लिये मुझे आमन्त्रित किया था। इसलिये अपनी नई पोशाक में मै राजपूत राजा का आतिथ्य प्राप्त करने के लिये गया। राजा ने मुझसे एक अनुरोध किया था, वह अनुरोध कुछ अजीब-सा था। राजा ने अपने महल में भोजन तैयार करने के लिए मेरे खानसामा को इसलिये बुलाया था कि मुझे देशी भोजन पसन्द नही आयेगा और उससे मेरा न तो पेट भरेगा और न मै सन्तुष्ट हो सकूँगा। सिन्धिया ने केम्प में यह जरूर कहा था कि महाराष्ट्रीय भोजन के साथ-साथ मै अपने देश का भोजन किया करता था। लेकिन राजा मानसिह के यहाँ मुझे अपने देश के भोजन की जरूरत नही थी। इसलिये राजा मानसिह के पास मेने कहला भेजा कि आपके महल मे मै केवल जोधपुर का ही भोजन करूँगा और उससे मै पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो सकूँगा। बादशाह जहाँगीर ने अपनी आत्म कथा लिखी थी। उस पुस्तक में जहांगीर की जीवनी थी। उसका अनुवाद विद्धान मेजर प्राइस साहब ने किया है। जिन लोगो ने उस ग्रन्थ को पढ़ा है। वे जानते होगे कि एंन्द्रजालिक लोग अपने इन्द्रजाल से बड़े-बडे अद्भुत कार्य करके दिखलाते हैं और बात की बात में किसी पेड़ मे फल पैदा करके लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। - 402