लगे। हम लोग धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ रहे थे और महल के अनेक कमरों को- जिनमें बहुत से आदमी दोनो तरफ खड़े हुये हम लोगों का स्वागत कर रहे थे-पार करके हम लोग राज-दरबार में पहुंचे। हम लोगों को देखते ही मारवाड़ का राजा सिंहासन से उठकर खड़ा हुआ और आगे बढ़कर उसने सम्मानपूर्वक मुझे ग्रहण किया, जिस स्थान पर हम लोग पहुँचे थे, वह स्वागत समारोह के लिए विशेष रूप से सजाया गया था। वहाँ पर एक हजार स्तम्भ थे, जो बड़ी खूबसूरती के साथ सजाये गये थे। इन स्तम्भों के कारण राजमहल का वह स्थान सहस्त्र स्तम्भ कक्ष कहलाता है। यहाँ पर बने हुये स्तम्भ सुन्दरता और नवीनता की अपेक्षा मजबूत अधिक हैं। प्रत्येक दो स्तम्भों के बीच का फासला बारह फुट है और प्रत्येक स्तम्भ इसी दूरी पर खड़ा हुआ है। वे सभी श्रेणियों में बनाये गये हैं। इसलिए उनका क्रम देखने में बहुत प्रिय मालूम होता है। राज दरवार की छत अधिक ऊँची नहीं है। इस स्थान के मध्य भाग में एक वेदी के ऊपर राजसिंहासन बना हुआ है और उस सिंहासन के ऊपर जो चन्दोवा लगा है, उसके नीचे चाँदी के स्तम्भ लगे हैं। राजा के दाहिनी ओर पोकरण और निमाज के दोनों सामन्त बैठते हैं। इन दोनों सामन्तों ने राजदरवार में ऊँचा पद प्राप्त किया था। दूसरे सामन्त लोग और ऊँची श्रेणी के पदाधिकारी राजसिंहासन के चारों तरफ बैठते हैं। उनके नाम यहाँ पर लिखने की आवश्यकता नहीं मालूम होती। विष्णुराम वकील राजा के सामने और मेरे पास बैठा था। कुछ देर तक साधारण बातें होती रही। उसके बाद अनेक दूसरे विषयों पर राजा के साथ मेरी बाते हुई। वह बातचीत अनियमित और क्रमहीन थी। प्रशंसात्मक होने के साथ-साथ वे बातें किसी समस्या को लेकर न थीं। राजा ने जो कुछ भी कहा मैंने उसको ध्यानपूर्वक सुना। वह हिन्दुस्तानी भापा में बोल रहा था। उसके बोलने की भापा में बहुत अच्छा प्रवाह था। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि दिल्ली के बादशाह के दरबार मे जितने भी राजा एकत्रित हुआ करते थे, उन सब में जोधपुर के राजा की बातचीत का ढंग बहुत अच्छा रहा होगा। वह मेरे साथ बड़ी देर तक बातें करता रहा। राजा का शरीर न वहुत लम्बा था और न अधिक छोटा। वह मुझे अधिक गम्भीर मालूम हुआ। आरम्भ से लेकर अन्त तक मुझे अनुभव हुआ कि उसके मनोभावों में किसी प्रकार की प्रसन्नता नहीं हैं। उसका शरीर वीरोचित था। उसकी बहुत देर की बातो के बाद भी मैंने उसमें उस प्रताप का अनुभव न किया जिसकी सहज ही अनुभूति मुझे उदयपुर के राणा की बातचीत से हुई थी। मैं इस बात को बार-बार सोच रहा था। राजा मानसिंह के सभी अंग सुदृढ़ और सुन्दर हैं। उसके दोनो नेत्रो से उसकी योग्यता का परिचय मिलता है। इतना सब होने पर भी उसके मन के भाव उसके सन्तोप का इजहार नहीं करते । इसका कारण यह है कि राज्य से निर्वासित होकर उसे बहुत दिनों तक कैदी की हालत में रहना पड़ा था और उन दिनो में उसके मस्तिष्क मे विकार उत्पन्न हो गये थे। ऐसा मालूम होता है कि उस समय से उसकी मानसिक दशा मे सुधार नहीं हुआ। राजा मानसिह ने सदा अपने मान की रक्षा की थी। वह स्वाभिमानी था। लेकिन उसके जीवन की विपदाओ ने उसे कठोर और अनुदार बना दिया था। मनुष्य को विपदाओं से - 381
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