आवश्यकता के लिए इसी गुलाब सागर से पानी लाते हैं। वहाँ जो परकोटे बने हैं, उनके बीच में एक कुण्ड भी है। वह कुण्ड पहाड़ को खोद कर बनवाया गया है, जो नब्बे फुट गहरा है। इस कुण्ड मे जो पानी है, वह रानी सरोवर और गुलाब सागर से लाया गया है। वहाँ पर बहुत-से कुए भी हैं। लेकिन उनका जल अच्छा नहीं है। वहाँ पर बहुत-से मकान और महल बनवाये गये हैं और उन सबको मिलाकर वहाँ के महलों की संख्या अधिक हो गयी है। दुर्ग के पश्चिमी भाग की तरफ राजधानी छ: मील तक मजबूत दीवारों से घिरी हुई है और उनके ऊपर ऊँचे-ऊँचे बुर्ज बने हैं। वहाँ पर पाइकला नाम की तोपें रखी हुई हैं। राजधानी में जाने के लिए सात मार्ग हैं और वे सिंहद्वार के नाम से प्रसिद्ध हैं। जो द्वार जिस तरफ बना हुआ है, वह उस स्थान के नाम से पुकारा जाता है। राजधानी में बने हुए मार्ग बहुत मजबूत और साफ -सुथरे हैं और प्रत्येक मार्ग के दोनों तरफ मजबूत पत्थर लगे हैं। यहाँ के लोगों का कहना है कि आज से कुछ वर्ष पहले तक इस नगर में बीस हजार परिवारों के रहने के लिए स्थान था। इसका अर्थ यह है कि उस समय जोधपुर में अस्सी हजार मनुष्यों की बस्ती थी, इस समय वह संख्या बहुत अधिक जान पड़ती है। सम्भव है, पहले यहाँ पर इतने मनुष्य रहते हों। यहाँ के रहने वालों के लिए गुलाब सागर विशेष रूप से विश्राम का स्थान है। बहुत- से लोग वहाँ पर वायु सेवन किया करते हैं। वहाँ पर एक बाग है उसमें एक प्रसिद्ध फल पैदा होता है और वह फल कुछ बातो में काबुल के अनार से भी अच्छा होता है। इस बाग में पैदा होने वाले उस फल में दाने बहुत कम और अत्यन्त छोटे होते हैं। वह बाग कागली का बाग कहलाता है। उसे दाडिम का बाग समझना चाहिए। इस बाग के अनार बहुत स्वादिष्ट होने के कारण भारतवर्ष के बहुत-से प्रसिद्ध स्थानों में भेजे जाते हैं। 4 तारीख को जोधपुर के राजा के मन्त्री एवं राजपरिवार के अन्य लोगो ने दूसरे सिंहद्वार तक आकर हमारा स्वागत किया और प्रचलित नियमों के अनुसार नमस्कार होने के बाद कुशल समाचार के प्रश्न पूछे। इसके बाद हम सबको राजमहल की ओर ले जाया गया। महल मे मेरे स्वागत की तैयारी हो रही थी। महल की तरफ आगे बढ़ने पर मैंने देखा कि जिस रास्ते से हम लोग चल रहे थे, उसमें दोनों तरफ पंक्तिबद्ध लोग खड़े हुये थे। उनमें राजवंश के बहुत-से लोगों के बीच से होकर मैं सबके साथ आगे बढ़ा। मेरे स्वागत में जो तैयारी की गई थी और बाहर से लेकर महल के भीतर तक जिस प्रकार समस्त स्थान और मार्ग सजाये गये थे, उनकी मुझे पहले से आशा नहीं थी। मेवाड़ के राणा के यहाँ भी मेरा स्वागत हुआ था। परन्तु उस स्वागत में इस प्रकार के वैभव का प्रदर्शन नही किया गया था। राणा के उस स्वागत में मुझे जो सरलता और स्वाभाविकता देखने को मिली थी, यहाँ का स्वागत उससे बिल्कुल भिन्न था। राठौर वंश के राजाओं ने दिल्ली के बादशाह के दाहिने हाथ बनकर बहुत दिनों तक शासन किया था। इसलिए वहाँ के प्रत्येक स्वागत के अनुष्ठान में दिल्ली के बादशाह का तर्ज अमल दिखाई देता था। हम लोगों को देखते ही सोने और चाँदी के पदक पहने हुये बहुत-से लोगों ने एक साथ 'राजराजेश्वर' कहकर जो जोरों के साथ आवाज की, उससे मेरे कानों के परदे फटने 380
पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३८६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।