प्रात:काल होते ही रंग महलों के द्वार पर हृदय विदारक दृश्य उपस्थित हुआ। जितनी भी रानियों और ललनाओं ने जौहर व्रत के लिए तैयारी की थी, सभी ने स्नान करके रेशमी वस्त्र पहने और अपने देवता की पूजा करके वे सभी एक स्थान पर एकत्रित हुई। प्रत्येक स्त्री ने जातीय गौरव का स्मरण करके अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और भक्ति के साथ नतमस्तक होकर प्रणाम किया और उसके बाद वह जौहर व्रत के लिए आगे बढ़ी। सभी ने इसका अनुसरण किया। प्रज्जवलित अग्नि मे कूद-कूदकर सभी वलिदान होने लगीं। जैसलमेर की चौबीस हजार ललनाओं ने प्रज्जवलित अग्नि की होली में प्रवेश करके अपने प्राणो की आहुतियाँ दीं। इस जौहर व्रत के भयानक, किन्तु पवित्र दृश्य को राज्य के सभी लोगो ने देखा। रावल मूलराज अव सव के साथ शत्रु से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उसने सिर पर तुलसी की कुछ पत्तियाँ और गले में शालिगराम की मूर्ति वाँधी। इसके बाद तीन हजार आठ सौ यदुभट्टी लोगों ने शत्रुओं के साथ युद्ध किया और उनमें से सभी ने प्राण उत्सर्ग किये। रत्नसी के दो बालक थे। एक का नाम था घडसी और दूसरे का नाम था कानड। घडसी की आयु वारह वर्ष थी। रत्नसी ने अपने इन दोनों बालकों को प्राणों की रक्षा के लिए सेनापति महबूब खाँ के पास भेज दिया और संदेश भेजा कि आप मेरे इन दोनों वालकों की रक्षा करें। जो दूत रत्नसी के दोनों बालकों को वहाँ पर लेकर गया था, उसके सामने सेनापति महबूवखाँ ने शपथ खाकर विश्वास दिलाया कि इन दोनों लड़कों की रक्षा मैं करूंगा। इसके बाद अपने दो आदमियों के साथ सेनापति ने उन दोनों बालको को बड़े सम्मान के साथ अपने यहाँ रखा और विश्वासी ब्राह्मणों की निगरानी में उसने दोनों बालकों को दे दिया। यह सब जैसलमेर के अन्तिम विनाश के पहले ही हो चुका था। जौहर व्रत के वाद जैसलमेर के जिन शूरवीरों ने वादशाह की फौज के साथ अपने जीवन का अन्तिम युद्ध किया था, उनके द्वारा वादशाह के बहुत से आदमी मारे गये। केवल रत्नसी ने अपनी तलवार से एक सौ वीस शत्रुओं का संहार किया था और उसके बाद वह मारा गया। रावल मूलराज ने शत्रुओं के बहुत आदमियों को मार कर युद्ध-क्षेत्र में अपने प्राण दिये। इस संग्राम में मारे गये रावल मूलराज और रत्नसी के मृत शरीरों को रणभूमि से मँगवाकर उनके वंश की प्रणाली के अनुसार सेनापति महबूब खाँ ने उनका अन्तिम संस्कार करवाया। सन् 1295 ईसवी में यदुवंशियों का पूर्ण रूप से विध्वंस और विनाश हो गया। जन्मतमा का प्रसिद्ध सामन्त देवराज यदु भाटी सेना के आगे चला करता था और युद्ध-स्थल में अपनी सेना पर नियन्त्रण रखता था, ज्वर से बीमार हो जाने के कारण उसकी भी मृत्यु हो गयी। यदुवंश को विध्वंस करके वादशाह की फौज दो वर्ष तक जैसलमेर के दुर्ग में रही। इन गाट दुर्ग को मजबूती के साथ बंद करके और उसमे ताले लगाकर वहाँ से वह चली गयी। जैसलमेर का दुर्ग इसके बाद बहुत दिनों तक पतित अवस्था में बना 1 वहाँ पर जो यदु भाटी लोग रह गये थे, वे न तो दुर्ग का फिर से निर्माण और मात्र का थे और न उनमे उसकी रक्षा करने की सामर्थ्य ही थी। 31
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