पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३३७

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हमको मालूम हुआ कि जिस रास्ते से हम लोगों को जाना है वह रास्ता जलमय है। मारवाड़ी पशुओं को उस रास्ते पर चलना मुश्किल दिखाई देने लगा। जिस स्थान से हम लोग चल रहे थे, वहाँ पर विभिन्न प्रकार के बहुत से वृक्ष थे और रास्ता जल से भरा हुआ था। उस रास्ते में हम लोगों को चलना पड़ा। मार्ग में बहुत से ग्राम दिखायी पड़े। ऐसा मालूम हुआ कि उनके रहने वालों का मार-पीट कर लूट लेना, झगड़ा करना और लड़ाई लड़ना ही रोजगार है। इस प्रकार की बातें उन गाँवों के सम्बन्ध में जानकर हमने न जाने क्या-क्या सोच डाला। कुछ भी हो, जिस मार्ग से हम लोग चल रहे थे, उसमें प्रकृति का सौन्दर्य खूब दिखायी देता था। बहुत तरह के वृक्ष आँखों के सामने आ रहे थे और उनसे हम लोगों ने एक प्रकार के सुख और संतोप का अनुभव किया। इस प्रकार के रमणीक स्थान राजस्थान में ही देखने को मिलते हैं। यह वात बार-वार मेरे मन में गुजरने लगी। जिस रास्ते से हम लोग चल रहे थे, हमारी वायीं तरफ पहाड़ों का एक ऊँचा सिलसिला था। उसे देखकर ऐसा मालूम होता था, मानो उन पहाड़ों के द्वारा उदयपुर की रक्षा के लिए एक ऊँची और अटूट दीवार बनी हुई है। उस शिखर के ऊपर राताकोट का टूटा और गिरा हुआ भाग अव तक उसके प्राचीन गौरव का परिचय देता है। उसके ऊपर से चारों तरफ के दृश्य दिखायी देते हैं। हमारे पूर्व की तरफ इतना विस्तृत क्षेत्र दिखायी दे रहा था, जिसकी कहीं पर सीमा नजर नहीं आती। हम लोग देवपुर होकर आगे बढ़े। यह एक ग्राम था और सभी प्रकार से सम्पन्न था। मारवाड़ का उत्तराधिकारी भानेज* जालिम सिंह उस देवपुर का अधिकारी था। हमारे पूज्यगुरु* ने शस्त्र विद्या के समान शास्त्रों के अध्ययन में भी जो योग्यता प्राप्त की थी, उसका श्रेय जालिम सिंह को ही था। जालिम सिंह ने मेवाड़ की राजकुमारी से जन्म लिया था और वह राजकुमारी राजा विजय सिंह को ब्याही गयी थी। दुर्भाग्य से राजा विजय सिंह के परिवार में एक भयानक वैमनस्य पैदा हो गया और उससे असन्तुष्ट होकर जालिम सिंह अपने मामा के यहाँ जाकर रहने लगा था। राणा ने जालिम सिंह को बड़े सम्मान के साथ अपने यहाँ रखा और उसको गुजारे के लिए सम्पत्ति तथा जागीर दी गयी थी। हमारे गुरू यती ज्ञानचन्द्र ने न्याय शास्त्र, विज्ञान, ज्योतिष और अपने देश के इतिहास का अच्छा अध्ययन किया था, उसे दूसरे कवियों की बहुत-सी अच्छी कवितायें जुवानी याद थीं और वह स्वयं कवि था। जयदेव की वहुत-सी कवितायें, उसने याद कर रखी थीं। उनको वह प्रायः सुनाया करता था। उसकी इस योग्यता -प्रियता के कारण वहुत-से कवि प्रायः उसके पास आया करते थे और कई-कई दिनों तक वहाँ ठहरा करते थे। और काव्य- टॉड साहब का लिखा हुआ यहाँ पर भानैज शब्द कुछ समझ में नहीं आता । इस शब्द से कुछ भ्रम पैदा होता है। इस विषय के दूसरे विद्वानों का इस प्रकार कहना है । भानज और भागनेय दो शब्द ऐसे हैं जो एक दूसरे का भ्रम उत्पन्न करते हैं। वास्तव में भानज भाञ्चे को कहा जाता है । टॉड साहव का अभिप्राय क्या यह स्पष्ट रुप से समझ में नहीं आता । इस शब्द पर कुछ लोगों का मतभेद होने के कारण यहां पर इतना लिखकर स्पष्टीकरण किया गया है। जिससे पाठक कुछ सही अन्दाज लगा सके। टॉड साहब ने अपने गुरु ज्ञान चन्द के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है और इस बात को स्वीकार किया है कि यती ज्ञान चन्द जैनमत का मानने वाला था । वह इस वर्ष तक मेरे माथ रहा और उसने सभी प्रकार मेरी सहायता की। में न केवल उसकी सहायता से सन्तुष्ट रहा, बल्कि उसकी योग्यता और व्यावहारिकता सन्तोष मिला। 337