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की एक सेना रवाना की। यह समाचार हाड़ा लोगों में सर्वत्र फैल गया कि बालक उम्मेद सिंह से युद्ध करने के लिए जयपुर से एक बड़ी सेना आ रही है। यह जान कर हाड़ा वंश के जो सामन्त अभी तक उम्मेद सिंह की सहायता में नहीं आये थे, वे भी अपनी सेनाओं के साथ रवाना हुए। उम्मेद सिंह ने अपने पिता के राज्य को प्राप्त करने के लिए एकत्रित हाड़ा राजपूतो के सामने प्रतिज्ञा करते हुए कहा, अपने वंश की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए मैं युद्ध में अपने प्राणों की बलि दूंगा। जयपुर राज्य के अठारह हजार सैनिकों की सेना डवलाना नामक स्थान पर आकर रुकी। युद्ध आरम्भ करने के पहले उम्मेद सिंह अपने वंश की देवी आशापूर्णा के मन्दिर में गया और वहाँ से लौटकर उसने अपनी सेना के सामने प्रतिज्ञा की- "या तो बूंदी राज्य पर अधिकार करूँगा अथवा युद्ध-भूमि मे बलिदान हो जाऊँगा।" बालक उम्मेद सिंह के साहस और शौर्य को देखकर एकत्रित हाड़ा राजूपतों ने उसकी प्रतिज्ञा का समर्थन करते हुए कहा-"हम लोग या तो विजयी होंगे अथवा युद्ध-क्षेत्र में अपने प्राणों को उत्सर्ग करेंगे।" दिल्ली के बादशाह जहाँगीर ने बूंदी के राजा राव रतन को राज पताका दी थी, उम्मेद सिंह इस युद्ध मे उसे अपने साथ लाया था। समस्त हाड़ा राजपूत बूंदी के उस झण्डे के नीचे एकत्रित हुए। उसी समय समाचार मिला कि शत्रुओं की सेना आक्रमण करने के लिए आ रही है। यह जान कर समस्त हाड़ा राजपूत एक साथ उत्तेजित हो उठे। उनकी अपेक्षा जयपुर की आने वाली सेना अधिक थी परन्तु उम्मेद सिंह उस विशाल सेना से किञ्चित भी भयभीत न हुआ। उसने अपनी सेना को चक्राकार सजाकर और अपने हाथ में भाला लेकर युद्ध की गर्जना की। हाड़ा राजपूत आगे बढ़े। दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। हाड़ा राजपूतों ने शत्रुओ की सेना पर इतने जोर का आक्रमण किया कि वह एक बार तितर-बितर होती हुई दिखायी पड़ी। परन्तु शत्रु सेना ने अपने आपको सम्भाल कर हाड़ा राजपूतों पर भयंकर गोलियों की वर्षा की। उम्मेद सिंह के सैनिकों ने उन गोलियों के सामने अपने प्राणों की परवाह न की और अपने हाथों में तलवारें लिए हुए शत्रुओ की ओर आगे बढ़े और अपनी तलवारो से उन्होंने जयपुर राज्य के सैनिकों का संहार किया। जिससे वे प्रत्येक बार अधिक संख्या में मारे गये। सबके पहले उम्मेद सिंह का मामा पृथ्वीसिंह घायल होकर गिरा, उसके बाद मोटरा का राजा मरजाद सिंह मारा गया। सारन के सामन्त प्राग सिंह के साथ-साथ दूसरे बहुत से शूरवीरों ने अपने प्राणों को उत्सर्ग किया। इस प्रकार प्रधान रणकुशल सैनिकों के मारे जाने पर भी बालक उम्मेद सिंह हताश न हुआ और शत्रुओं का संहार करने के लिये साहस पूर्वक अपनी सेना के साथ वह आगे बढ़ा। कुछ समय के भीषण युद्ध के बाद शत्रु की गोली से उम्मेद सिंह का घोड़ा घायल हुआ। उसके शरीर से रुधिर की धारा बहने लगी। शत्रुओ की संख्या अधिक होने के कारण और शत्रु पक्ष की तरफ से गोलियों की मार होने से उम्मेद की सेना लगातार निर्बल होती गयी और अन्त मे उसकी पराजय के लक्षण दिखायी देने लगे। इस समय युद्ध की दशा भयानक थी। शत्रु सेना बराबर आगे बढ़ रही थी और उम्मेद सिंह के सामने संकट का समय आने में 246