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से प्रतापसिंह को दिया जा रहा है। उसके शासन की सनद तैयार हो चुकी है। इसलिये आप तुरन्त जयपुर के राजा के साथ सन्धि कर लें और जो माँग की जाये, उसे आप पूरा करें। यदि आप ऐसा चाहते हैं तो मैं आपकी सहायता करूँगा।" नरसिंह ने इन्द्रसिंह की इस बात को स्वीकार नहीं किया। इसलिये इन्द्रसिंह ने जयपुर छोड़ कर तुरन्त उसको चले जाने के लिये कहा। उसने यह भी कहा यदि आप चुपके से निकलकर अपने राज्य न चले जाएँगे तो आपके साथ मेरे ऊपर भी संकट पैदा हो जाएगा। इन्द्रसिंह के परामर्श के अनुसार नरसिंह रात के समय जयपुर से जाने के लिये तैयार हुआ। इन्द्रसिंह ने उसकी रक्षा के लिये अपने साठ कर्मचारियों को उसके साथ भेजा। वे लोग गुप्त रूप से उसको नवलगढ़ पहुँचा कर लौट आये। नरसिंह सवेरा होते-होते अपने दुर्ग गोविन्दगढ़ में पहुंच गया। इन्द्रसिंह के पास नरसिंह का आना जयपुर में प्रकट हो गया इसलिये नन्दराम ने इन्द्रसिंह को अनेक प्रकार की धमकियाँ दी। उनका उत्तर देते हुए इन्द्रसिंह ने नन्दराम से कहा- "मैंने राजपूतों के कर्त्तव्य का पालन किया है। इसका कोई भी परिणाम हो, मैं उसके लिये जरा भी भयभीत नहीं हूँ।" नाथावत वंश में सामोद और चौमूं के दोनों सामन्त प्रधान थे, सामोद के सामन्त को चौमूं से भी अधिक श्रेष्ठता मिली थी और वे दोनों जयपुर राज्य की अधीनता में रहते थे। इन दोनों प्रधान सामन्तों को राज्य की तरफ से रावल की उपाधि मिली थी। उनके शासन में बहुत से छोटे-छोटे सामन्त रहते थे। सामोद के सामन्त के साथ चौमूं के सामन्त का बहुत दिनो से भीतर ही भीतर द्वेप चल रहा था और कभी-कभी उन दोनों में झगड़े भी हो जाते थे। नरसिंह को जयपुर में अपने आप बुलाने के कारण इन्द्रसिंह से नन्दराम सेनापति बहुत अप्रसन्न हुआ। इस प्रकार का समाचार पाकर चौमूं का सामन्त जयपुर के राज-दरबार में गया और नाथावत वंश के सामन्तों में श्रेष्ठ सामन्त का पद प्राप्त करने के लिये वह आमेर के राजा को बहुत सा धन उपहार में देने के लिये तैयार हुआ। आमेर का राजा सामोद के सामन्त इन्द्रसिंह से अप्रसन्न था ही। उसने चौमूं के सामन्त की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। इन्द्रसिंह इस समय भी जयपुर मे मौजूद था। उसे बुलाकर राज-दरबार में आज्ञा दी गयी: "आपने राज्य के विरुद्ध जो अपराध किया है, उसके दण्ड में सामोद की जागीर राज्य के अधिकार में ले ली गयी है और आपको आदेश दिया जाता है कि आप तुरन्त सामोद की जागीर छोडकर राज्य से चले जायें।" राजा के इस आदेश को पाकर सामोद के सामन्त इन्द्रसिंह ने कुछ भी विरोध न किया। उसने एक राजभक्त की हैसियत से इस आज्ञा को स्वीकार किया और आमेर राजधानी से वह अपनी जागीर सामोद चला गया। वहाँ पहुँचकर उसने सामोद से निकल जाने की तैयारी की और अपनी सामग्री तथा सम्पत्ति को लेकर अपने परिवार के लोगों के साथ सामोद से निकलकर वह मारवाड राज्य मे चला गया। कुछ दिन बीत गये। इन्द्रसिंह की स्त्री को आमेर राज्य के दरवार से पिपली नामक एक ग्राम का अधिकार मिला। इन्द्रसिंह की अवस्था बुढापे की चल रही थी। उसने अपनी जन्मभूमि मे मरने का इरादा किया। इसलिये जीवन के अन्तिम 163