पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/१४३

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उत्तराधिकारी के अभाव में राणावत वंश के वालक को गोद लिया जाता है। मारवाड़ राज्य में जोधावंशी वालक को गोद लेने की व्यवस्था है। बूंदी राज्य में दुगारी वंश, कोटा-राज्य में आपजी वंश, वीकानेर में महाजन गाँव के सामन्त वंश का वालक गोद लिया जाता है। जगतसिंह की मृत्यु के बाद दूसरे दिन मोहनसिंह नाम का वालक जयपुर के सिंहासन पर बैठा। वह वालक नरवर राज्य के भूतपूर्व राजा मनोहरसिंह का लड़का था। सिंधिया ने मनोहरसिंह को राज्य से निकाल दिया था। वह जयपुर राज्य का वंशज था। उसके पूर्वज आठ सौ वर्ष पहले जयपुर राजवंश से पृथक हुये थे। इसलिए मोहनसिंह का अभिषेक प्रचलित प्रथा के विपरीत हुआ। क्योंकि वर्तमान प्रथा के अनुसार झिलॉय के सामन्त का वंशज आमेर राज्य के पद पर आने का अधिकारी था। उस वंश के किसी बालक के न मिलने पर दूसरे कई सामन्त वंश इसका अधिकार रखते थे। उन वंशों के किसी वालक की खोज न करके मोहनसिंह को गोद लिये जाने का एक कारण था। जगतसिंह की मृत्यु के समय उसके अन्त:पुर में मोहन नाम का एक नाजिर था। उस समय शासन की वागडोर उसी के हाथ में थी। वह बड़ा चतुर था और स्वार्थ साधन करना वह खूब जानता था। वड़ी वुद्धिमानी के साथ उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति की थी और राज्य के शासन में अपना अधिकार पैदा कर लिया था। वह स्वार्थ परायण था। अवसर का लाभ उठाना जानता था। जिस मोहनसिंह को आमेर राज्य का उत्तराधिकारी वनाया गया और वहाँ के सिंहासन पर विठाया गया, उसकी अवस्था केवल नौ वर्ष की थी। इस बालक के सिंहासन पर बैठने से नाजिर मोहन को वहुत समय तक राज्य से लाभ उठाने का मौका था। इसलिए राजस्थान की प्रथा के अनुकूल न होने पर भी वालक मोहनसिंह को आमेर के सिंहासन पर विठाने की नाजिर मोहन ने चेप्टा की थी और उसमें उसको सफलता भी मिली थी। जयपुर राज्य के श्रेष्ठ सामन्तों मे डिग्गी के मेघराज सिंह सामन्त की मित्रता उस नाजिर के साथ थी। सामन्त मेघराजसिंह ने नाजिर की मित्रता का पूरे तौर पर लाभ उठाया था और राजा की खास भूमि पर अधिकार करके स्वतन्त्रता के साथ उसका उपयोग किया था! शासन में नाजिर का आधिपत्य था और उस नाजिर के साथ मेघसिंह की मैत्री थी। अन्तःपुर से लेकर राज्य के छोटे-बड़े सभी कर्मचारियों तक जो लोग नाजिर के मेल के थे, वे सभी राज्य में मनमानी कर रहे थे। उन पर किसी का नियन्त्रण न था। छोटे वालक के सिंहासन पर बैठने से राज्य में शासन का अधिकार नाजिर के हाथ मे रहेगा और अधिकार बने रहने से अनुकूल कर्मचारी और राज्य के अधिकारी बिना किसी अंकुश के रहेंगे। इसीलिए वे सब नाजिर के समर्थक हो रहे थे और नाजिर की इच्छानुसार वालक मोहनसिंह वहाँ के सिंहासन पर विठाया गया था। नाजिर ने नरवर से मोहनसिंह को लाने और अभिषेक करके सिंहासन पर उसे विठाने के लिए किसी से परामर्श नहीं किया। अपनी समझ में उसको परामर्श करने की जरूरत भी नहीं थी। दरवार से लेकर राज्य तक सर्वत्र उसका आधिपत्य था। इसीलिये उसने न तो रानियों मुगल बादशाहों के महलों में जो मनुष्य रक्षक के पद पर रखा जाता था" उसे नाजिर कहा जाता था। राजपूत राजाओं में जयपुर और बूंदी के राजाओं ने उनका अनुकरण करके अपने अन्तःपुर के रक्षक को नाजिर की उपाधि दी थी। 135 ।