अध्याय-58 जयपुर राज्य की अंग्रेजों के साथ संधि व अन्य बातें प्रतापसिंह के बाद सन् 1833 ईसवी में जगतसिंह आमेर के सिंहासन पर बैठा। इन दिनो में आमेर के साथ-साथ वहाँ के समस्त राजपूत राज्यों की अवनति हो गयी थी। मराठों के अत्याचारों से राजस्थान का प्रत्येक राज्य अशान्ति के दिन व्यतीत कर रहा था। कहीं पर भी प्रजा सुखी न थी। सर्वत्र व्यवसाय को भयानक क्षति पहुँची थी। किसानों की खेती लगातार नष्ट हो रही थी। चारों तरफ मराठों की लूटमार चल रही थी। उनको रोकने के लिए राजपूत राजाओं के पास कोई साधन न था। मराठों के दो संगठित दल थे। एक का नेतृत्व होलकर कर रहा था और सिंधिया दूसरे दल का सेनापति था। पठानों का सेनापति अमीर खाँ मराठों का सहायक हो रहा था। इन दिनों में राजपूतो की अवस्था अच्छी न थी। पठानों और मराठों के शक्तिशाली संगठन लगातार उनका विनाश कर रहे थे। जगतसिंह के सामने भयानक संकट था। अपने राज्य की रक्षा के लिए उसे कहीं कुछ दिखायी न देता था। राजपूत राजा संगठित होकर शत्रुओं का सामना न कर सकते थे। वे अपने संस्कारों में एकता को लेकर ससार में नहीं आये थे। इधर बहुत दिनों से राजपूत राजाओं को मुगल बादशाह का आश्रय मिल रहा था। उनकी बादशाहत भी इन दिनों में मृतप्राय हो रही थी। समुद्र पार करके जो अंग्रेज इस देश में आये थे, केवल उनकी शक्ति इन दिनों में सजीव और जागृत हो रही थी। इस दशा में जगतसिंह की आँखें बार-बार इन अंग्रेजों की तरफ देख रही थी। उसने सोच-समझकर सन् 1803 ईसवी में अंग्रेजों के साथ सन्धि कर ली। वह सन्धि सात शर्तो के साथ लिखी गयी थी। उसका सारांश इस प्रकार है- (1) इस सन्धि के द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी और राजा जगतसिंह व उसके उत्तराधिकारियों में स्थायी रूप से मित्रता कायम होती है। (2) इस सन्धि के अनुसार एक पक्ष का शत्रु दोनों पक्षों का शत्रु होगा और किसी एक पक्ष का मित्र दोनों पक्षों का मित्र समझा जाएगा। (3) राजा जगतसिंह को अपने राज्य में शासन करने का पूर्ण अधिकार होगा। ईस्ट इण्डिया कम्पनी उसमें कभी हस्तक्षेप नहीं करेगी। (4) कम्पनी के अधिकृत राज्यों पर अगर इस देश की कोई शक्ति आक्रमण करेगी, तो आमेर की सेना कम्पनी की सेना के साथ आक्रमणकारी के साथ युद्ध करेगी। 130
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