'एक अच्छा शासक था, बल्कि सार्वजनिक हितों की रक्षा करना भी वह खूब जानता था। उसके राज्य में जैन सम्प्रदाय के लोगों को आवश्यक प्रोत्साहन मिला था। विद्याधर नामक व्यक्ति जो उसके ज्योतिप विज्ञान के कार्य में सहयोगी था और जिसकी सहायता और योग्यता से जयपुर राजधानी का निर्माण हुआ, वह जैन धर्मावलम्बी था। सवाई जयसिंह योग्य और विद्वान पुरुषों को अपने यहाँ आदरपूर्वक स्थान देना आवश्यक समझता था। उसने प्रसिद्ध पण्डित हेमाचार्य को अपने यहाँ मन्त्री का पद दिया था। विद्याधर उसी हेमाचार्य का वंशज था। अन्यान्य योग्यताओं के साथ-साथ सवाई जयसिंह एक अच्छा शासक था। उसकी इस योग्यता का एक वड़ा प्रमाण यह भी है कि उसने अपने शासनकाल में अश्वमेघ यज्ञ करने का इरादा किया था। इस यज्ञ का इरादा वही राजा करता है जो अन्य राजाओं की अपेक्षा अपने आपको अधिक शक्तिशाली समझता है। ऐसा मालूम होता है कि उसका यह इरादा उन दिनों में हुआ था, जब मुगल साम्राज्य की शक्तियाँ निर्बल पड़ गयी थी और दूसरे राजाओं का उसे कोई भय न रह गया था। पाण्डु वंश के जनमेजय से लेकर कन्नौज के अन्तिम राजा जयचन्द तक जितने राजाओं ने अश्वमेघ यज्ञ किया था, उन सभी का सर्वनाश हो गया। मुगल बादशाह के दरबार में जितने राजा थे, सवाई जयसिंह उन सभी में अधिक शक्तिशाली था। इस यज्ञ का निर्माण करके उसने यदि घोड़ा छोड़ा होता, जैसा कि उस यज्ञ का नियम है तो सम्भव है कि अन्य राजा उसका घोड़ा पकड़ने का साहस न करते। लेकिन उस घोड़े के मरुभूमि की तरफ जाने पर राठौर राजा अवश्य ही उसको पकड़वा लेता और यही अवस्था चम्बल नदी के किनारे हाड़ा राजा के राज्य में भी होती। वह घोड़ा वहाँ पर भी पकड़ा जाता। सवाई जयसिंह ने बहुत-सा धन खर्च करके यज्ञशाला बनवाई थी और उसके स्तम्भो तथा छत को चॉदी के पत्तरों से मढ़वाया था। इन चॉदी के मूल्यवान पत्तरों को उसके वंशज स्वर्गीय जगतसिंह ने निकवाकर उनके स्थान पर साधारण चाँदी के पत्तर लगवा दिये। जयसिंह ने जिन ग्रन्थों का संग्रह करने मे अत्यधिक परिश्रम और धन व्यय किया था, उनके दो भाग कर दिये थे। उनका एक भाग किसी प्रकार जयपुर की एक साधारण वेश्या के अधिकार मे पहुँच गया था। चवालीस वर्षो तक राज्य करके सम्वत् 1799 से 1743 ईसवी में सवाई जयसिंह की जयपुर मे मृत्यु हो गयी। उसकी तीन विवाहिता रानियाँ और अनेक उपपत्नियाँ उसके शव के साथ जल कर सती हुई। उसने जिस विज्ञान को अपने जीवन भर उन्नति की थी, उसकी मृत्यु के बाद वह एक साथ लोप हो गयी। . 119
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