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नशीनी हुई। उसी वर्ष उन्होंने श्री एक लिंग जी में जाकर रत्नों का तुलादान किया, जो भारतवर्ष के इतिहास में एकमात्र उदाहरण है। सन् १६५३ की ४ फर्वरी को उनका राज्याभिषेक हुआ। और चाँदी का तुलादान किया। इसी अवसर पर शाहजहाँ ने उन्हें राणा का ख़िताब, पाँच हज़ारी ज़ात और ५ हज़ार सवारों का मनसब देकर जड़ाऊ तलवार, हाथी, घोड़े वगैरा भेजे। परन्तु राजसिंह ने गद्दी पर बैठते ही चित्तौड़ के क़िले की मरम्मत शुरू करदी। इस खबर को सुनकर शाहजहाँ अजमेर ख्वाजा की दरगाह की ज़ियारत करने के बहाने से आया और अब्दालबेरा को क़िले की मरम्मत देखने को भेजा। और जब उसने लौटकर बताया कि पश्चिम की ओर ७ दर्वाज़ों की मरम्मत कर ली गई है, और कई नवीन दर्वाज़े बना लिए गये हैं। जो जगहें ऐसी थीं जहाँ चढ़ना सम्भव हो सकता था वहाँ दीवारें खड़ी कर ली गई हैं। तब बादशाह ने सादुल्लाखाँ वज़ीर आला को ३० हज़ार फौज़ के साथ तमाम मरम्मत ढहाने के लिए भेजा। उस समय राणा ने लड़ना उचित न समझ बादशाह से माफी माँगली और पाटवी कुँवर को जिनका नाम बादशाह ने सौभाम्यसिंह रखा था भेज दिया। बादशाह ने कुँवर को ६ दिन पास रख कर हाथी, घोड़ा और सिरोपाव देकर विदा किया। परन्तु ज्योंही शाहजहाँ बीमार पड़ा और शाहज़ादों में गद्दी के उत्तराधिकार की गड़बड़ चली कि इस सुयोग से लाभ उठा कर राणा ने अपने पुराने परगने वापिस ले लिये। और जो जो हिन्दू सरदार सादुल्लाखाँ के साथ चित्तौड़ का क़िला ढहाने आये थे एक एक को भली भाँति दण्ड दिया गया। उधर समूनगर के युद्ध में दारा का भाग्य फूटा और बाप को कैद करके औरंगज़ेब तख्त पर बैठा। वह प्रथम ही से राणा को