यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[चौथा १६८ राजसिंह अकबर-आप खुद घाटों और दरों में फौजों की टुकड़ियां भेजिए तहज्बुरखाँ-बेकार । फौज घाटियों और दरों में जाने से इन्कार करती है। उसकी हिम्मत बिल्कुल टूट गई है। एक मुसीबत और है। अकबर-वह क्या ? तहब्बुरखाँ-चित्तौड़ के आस पास के सब थाने टूट चुके हैं और राजपूतों ने पहाड़ों से निकालकर बदनौर तक अपनी फौजें फैला दी हैं इससे अजमेर से हमारा ताल्लुक टूटने का पूरा अन्देशा है। फौज बे सरो- सामान, थकी हुई बे सिलसिले भूखी और प्यासी है । (एक सिपाही घबराया प्राता है) सिपाही-ख़ुदाबन्द, दुश्मनों की फौज ने छावनी पर हमला किया है। अकबर-खड़ा होकर ) तहब्बुरखां ! आप फौरन फौज की मोर्चे बन्दी करें । मैं अभी आता हूँ। नहब्बुरखां-बहुत खूब । (जाता है) (पर्दा बदलता है)