यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
दृश्य] पाचवाँ अंक १७७ राणा-मुगलों का मुझे कुछ भी भय नहीं है कुमारी ! तुम जैसी चतुर, रूप, गुणवती जिस राजा की भार्या हो-वह धन्य है । आओ, आज मैं मन बचव से तुम्हें अपनी राजमहिषी बनाता हूँ। चारुमती-(आँसू भरकर) महाराज ! मैंने प्रतिज्ञा की थी कि आप यदि मुझे ग्रहण न करेंगे तो मैं राजसमुद्र में डूब मरूँगी। राणा-प्रिये । अब सच्ची मेरे मन की बाते सुनो । तुमने केवल विपत्ति में फंसकर मेरी महिषी बनना चाहा था इसी से हमने इतनी बातें कहीं। पर एक बात विचार कर हम यह उचित समझते हैं कि रूपनगर खबर भेजकर तुम्हारे गुरुजनों को बुलाकर उनके हाथ से तुम्हारा ग्रहण विधिवत् करें-यही हमारी इच्छा है। इसमें औचित्य भी है और धर्म भी। चारुमती-आपका प्रस्ताव ठीक है। मैं भी उनका आशीर्वाद लेकर ही आपकी चरणदासी बना चाहती हूँ। (पर्दा गिरता है)