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१४६ राजसिंह राजसिंह-फिर भी यह प्रसंग ऐसा ही है । परन्तु अभी यह विषय रहे । कुमारी की इच्छा बादशाह की बेगम बनने की नहीं है। निर्मल-नहीं। राजसिंह-कुमारी के मुंह से सुनना चाहता हूँ। निर्मल-कहो सखी, यह लाज का समय नहीं। चारुमती-(लजा कर ) नहीं, मैं आपकी शरण हूँ। राजसिंह-(तलवार ऊँची करके ) शरणागत को अभय । चलो कुमारी, मेवाड़ तुम्हारे लिये प्राण देगा। निर्मल-यों नहीं महाराज, राजपूत बालाएँ क्या इस तरह पिता का घर त्यागती हैं ? राजसिंह-तब ? निर्मल-वीरवर, आपके खड्ग में बल है तो आप रूपनगर की राजकन्या का हरण कीजिए। राजसिंह-(संकोच से) रूपनगर की कुमारी ने सिर्फ संकट में पड़ कर मेरी शरण चाहो है, राजधर्म समझ मैंने शरण दी है। हरण और वरण अलग बात है। निर्मल-महाराज, आप यह क्या कहते हैं, राजकन्या तनमन से आपको वर चुकी है। राजसिंह-निरुपाय हो कर।