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, १४४ राजसिंह [दूसरा रामसिंह-बिल्कुल ठीक ! परन्तु अभी तक सलामी नहीं दागी जा रही, क्या बात है ? कामदार-महाराज, बादशाह की सवारी का पता ही नहीं है। रामसिंह-(डपट करं) क्यों पता नहीं है यही हम पूछते हैं- ब्याह का मुहूर्त तो... (चारु और सखिों की ओर देखकर ) ठीक है, इधर तो सब मामला टंच है और उधर तुम कहते हो रोशनी का-सलामी का सब बन्दोबस्त दुरुस्त है। कामदार-जी हाँ महाराज! रामसिंह-अब जाकर आँखों से देखू । तो समझू (जाता है) निर्मल-बला टली। चारुमती-कहाँ, अभी बला सिर पर मंडरा रही है। निर्मल-लो किले पर रोशनी हो रही है। ड्योढ़ियों पर शहनाई बज रही है। राग रंग रच रहे हैं, परन्तु सुनो, यह क्या ? ड्योढ़ियों पर कुछ हो रहा है। सुनो, सुनो ! (एक धमाका होता है राजसिंह और उनके दो साथी तलवारे सूते महल में दाखिल होते हैं । सब स्त्रियाँ हड़बड़ाकर खड़ी हो जाती हैं, चारुमती हर्ष से जड़ हो जाती है।) निर्मल-क्या मैं समहूँ कि रूपनगर का यह महल श्री महाराणा के चरणों से पवित्र हुश्रा। राजसिंह-हाँ, मैं राजसिंह हूँ (इधर उधर देख कर) परन्तु क्या मैं भूल से इधर उधर या निकला हूँ। , ,