यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११६ राजसिंह [छठा रत्नसिंह-तुम देवी हो, यही समय है। सौभाग्यसुन्दरी-कैसा? रत्नसिंह-आओ, हम परस्पर आत्मा का विनिमय करें। इसी सूर्य, नक्षत्र, आकाश, हृदयाग्नि और वायु की साक्षी में । निकट आओ। सौभाग्यसुन्दरी-(निकट भाकर ) सब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष देवताओं के सन्मुख मैं इस अधम तन-मन को आपके अर्पण करती हूँ। रत्नसिंह और सब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष देवताओं के सन्मुख मैं तुम्हारा आत्म-दान ग्रहण करता हूँ। तुम अब से मेरी प्रिय पत्नी हुई। सौभाग्यसुन्दरी-और आप मेरे प्राणाधार पति । रत्नसिंह-प्रिये ! सौभाग्यसुन्दरी-प्राणधन ! रत्नसिंह-श्रोह ! मैं कृतकृत्य हो गया। सौभाग्यसुन्दरी-मैं धन्य हो गयी। रत्नसिंह-अब जीवन-मरण मेरे लिए खेल है। सौभाग्यसुन्दरी-यही राजपूती जीवन की शोभा है। रत्नसिंह-अब जाऊं प्रिये, विदा । सौभाग्यसुन्दरी-विदा, प्राणनाथ । रत्नसिंह-हम फिर मिलेगे। सौभाग्यसुन्दरी-अवश्य मिलेंगे।