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राजबिलास। गिनत न आवै गान, कहत कविंद मान ॥ २३ ॥ इति श्री मन्मान कवि विरचिते श्रीराजविलास शास्त्रे मर्व ऋतु बिलास बोग बर्णन चतुर्थ बिलासः सम्पूर्णः ॥ ४ ॥ ॥दोहा॥ पालिय प्रबर कुंभार पद, बरस तेइस बखान । पाट बइठे पुहबी पति, राजसिंह महारान ॥१॥ छन्द लघु नाराच । श्री राज सिंह रान ज, प्रभूत पुन्य प्रान जू। बइट्ठिये यु पाटक, थटे यु भूप थाट कां ॥२॥ अनूप हेम आसनं, सचिटिके सुखासनं । महक्कि चारु मज्जनं, सुमज्जए दुसज्जनं ॥ ३ ॥ कलं कनक्क कुम्भ सौं, अनाइ गंग अंभ सों। शरीर कीन स्नानयं, बिराजि अंग बानय ॥ ४ ॥ सकोमलं सुरंगयं, अंगुच्छि चीर अंगयं । सुधौतकं सु बासयं, षीरोदकं यु षासयं ॥ ५ ॥ 'ध्रुवं जनेउ धारये, कही सुबन्स कारये । प्रधान बन्धि पाघयं, सुबर्ण सूत साधयं ॥ ६ ॥ जरीस जोंति जामयं, दिपंत कण्ठ दामयं । प्रसंसि पाइ मोजरी, जराउ हेम संजुरी ॥ ७ ॥ करं गृहै कृपानयं, बियौ सु पंचबानयं । चढ़े तुरंग चंचलं, दहक्कि आसुरी दलं ॥८॥