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राजबिलास। दोहा। धान-मढ़ी लोनह-मढी, रुई-मढी सुभ संज । अनछादित सुस्थित अमित, गिरिवर सम बहु गंज १४२ बंधि गंठि बहु भंतिकन, ढोवत किते हमाल । के वारदि केई सकट, सब दिन रहत सु काल ॥१४३।। मुंदर तिय केऊ सहस, शीश सुघट पनिहारि । कोकिल ज्यों कलरव करहिं, भरहि छानि वर वारि१४४ः किते पषालिय महिष वृष, भरे मसक के नीर । हय गय नर तिय पन घटहिं, सब दिन रहत सभीर१४५ मेद पाट जन पद सु मधि, सहर उदय पुर साज । महारांन करनेश सुव, जगत सिंह युवराज ॥१४६॥ रानि जनादे रूप रति, सत सीता सु विचारि । राजसिंह राना रतन, जाए जिन जय कार ॥१४॥ कवित्त । संबत सोरह सरस बरस छह असिय बखानह । असि अमृत ऋतु सरद, धरा निप्यनिय सुधानह ॥ मंगल कातिक मास पढ़म पष वीय पवित्तह । बल- वंतो बुध वार निरषि भरनी सुनषत्तह ॥ निसि नाथ उदित गय पहर निशि मेष लगन भन्यों सु मन । जगतेश रान घर सुत जतम राजसिंह राना रतन १४८ .... विकसत हरि हर ब्रह्म सूर ससि अधिक सुहाइय । इंद ताम उच्छाह सकल सुर हरर्ष सवइय ॥ गावहिं