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२५८ राजविलाम । बीर जगे ॥ कुननंत किते कबिला कलहंगनि रुम्मि रुहिल्ल गोहल्ल रुरै । मचि मारहु मार सुमार मुषं मुष भारिय भारत भूप भिरै ॥२॥ उतमांग पतंत कहैं केइ अल्लह के रसना ते रसूल ररें। घन घायल घाउ लगे घट घूमत झूमत ही धर घांसि परें ॥ हबसी उजबक बलोचिय भंभर गक्खरि भक्खरि कोन गिनें । परि सत्यर बित्थर चेरि रिनंगन बायक कैसे कहंत बनें ॥३॥ कटि कंध कमंध सुअंध गहें असि नच्चत रूप बिरूप लगें। उबरंत परंत गिरंत कि गिंदुक जिंद अटट्ट- टहास जगें ॥ गज बाजि फिरंत रिनंगन गाहत भंजि करं कनि भूक करें । तरफै अधतंग तुटे नर आसुर ज्यों जलहीन सुमीन रुरें ॥ ८४ ॥ ___कर षग्ग कढ़े शिर पंध लटकत आन झटक्कत झुझि भरें। मुष मार बकंत हर्कत हुस्यारिय झार प्रनार सुरंग झरें ॥ नट ज्यों भटके किन बल्ल निपट्ट उलट पलट्ट कुलट्ट नचे । अनतुंग अनाकुह अंत अलुज्झत मांस रु श्रोनित पंक मचें ॥५॥ किन अश्व कटंब धयंत सुपाइन पाइ झरंत सुकुन्त बरें। रहि ठट्ट सुगट्ट कुधंत इकें करपार बदंतन क्षोनि परें॥ बिन हत्य किते धपि मारत मुडहिं ज्यों वृष मेष महीष भिरें ॥ बढि सत्य लथब्बथ के