२२५ राजविलास । गंग जैति कीनी बहुरि ॥ ३७ ॥ कहुकनारि करिनारि कहुक करि करभ कह हय । कहूं सिलह रथ सुभर कहुंक षचर षजान मय ॥ कहुँ नेज रु निसान जीन पक्खर तजि भारिय । नट्ठ प्रासुर निलज हीय हहरत अति हारिय । सगताउत गंग कुंभर सुहर दिल्लीपति दल बल सुदलि । गजराज नवंनव जह गहि गृह आए जित्ते बकलि ॥ ३८ ॥ ॥दोहा॥ एकहि बैर पोरंग के, नव गजराज उतंग । भेट किए महाराण की, केहरि कूपर गंग ॥ ३८ ॥ हरणे हिंदूपति सुहिय, दंती देष दिवान । सगता गंग कुंभार को, कियो अधिक सनमान ॥ ४०॥ हेम तोल चंचल सुहय, साकति हेम सरूप । वसुमति ग्राम बढ़ाउ बहु, अरु शिर पाव अनूप ॥४१॥ इति श्रीमन मान कवि बिरथिते श्री राजविलास शास्त्रे श्री सगताउत गंगकुर जी के न पातिमाह कस्य हस्ती यूथ ग्रहण वर्णनं नाम चतुर्दशमो विलासः ॥ १४ ॥ चगता पति चीतोर गढ़, रोकि रह्यो हठ पूरि। कितक बरस छाउन कहत, दिल्ली छंडी दूरि ॥१॥ एह गल्ह असुरेश की, बिथुरी सनि बिरुदाल । भीमराण राजेश को, कभर कोपि कराल ॥ २ ॥ दिल्लीपति को देश ले, कट्टन कियो सुमंत । सोरठ अरु गुजरात मध, मारन देश महंत ॥ ३ ॥
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