यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजबिलास। पढ़ि गौर गंगापार, धर भिन्न माल सुधार । देष्यौ यु गुर्जर देश, लच्छिन न जहँ शुभ लेश ॥७॥ विचरंति झालावारि, धावंत काठी धारि । छप्पनरु बागरि छेह, अटि देषि देश अलेह ॥ ७६ ॥ निज निरखि नागर चाल, नर अश्व मुख नेपाल। पंजाब पहु पंचाल, बसुधा बिदेह बँगाल ॥ ७७ ॥ पुनि फिरचौ देश फिरंग, रुचि न किय जहं मन रंग। सोधयौ सिंधु सुबीर, नर नारि मुष नहिं नीर ॥ ७८ ॥ सोरठ सिंघल साज, रमि रह्यौ धरतिय राज । दक्षिन विदरभिन देश, भल रूप भूसन भेश ॥८॥ द्वग द्रविड़ देश युदिह, चबि चविड लोक सुचिट्ठ । रोहिल्ल गरवर राह, उत्तर दिशा अवगाह॥०॥ बसुमती देश विदेश, तरि रही नव नव तेश। कहिं देश अति गुरु कान, जहं सोइ अंशुक जान ८१॥ कहिं अश्वमुख नरकाय, कहिं एकजंघ कहाय । कहिं त्रिया राज करत, कहुं श्वेत काक कहंत ॥ २ ॥ कहुं लंब कुच तिय किद्ध, पुहवी अनादि प्रसिद्ध। कहुं जनत कामिनि जात, तब पवन राखत तात ८३॥ पिति कहूं जल अति खार, कहिं देश जल दुख कार । कहुं कुहुरं नीर कढंत, ढिग ढोल तहं ढमकंत ॥४॥