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राजविलास।
भरे यान जंत्री सुभाराव भारं । सयं पंच बीस
सजे साज सारं ॥ धुरा अश्व जोरा किनं शेत धारी। जुपे जंत्रि किहि संबरं रोझ झोरी ॥ ४५ ॥
दलं मध्य दिल्लीसरं अप्प दी । जना मान
लंकेश को सोइ जी ॥ बन्यो रूप आरोहए एक बाजी.। सुभे स्वर्ण माणिक्य साकत्ति साजी ॥४६॥
छजे दंड सोवर्ण जा शीश छत्रं । उभे उद्यलं
चौर ढुरते पवित्रं ॥ चहूं ओर जा गुर्ज बरदार चल्लें। छरीदार हज्जार केसे न ढिल्लें ॥ ४७ ॥
भरी खच्चरं सहस स्वर्णं खजानं । गिने कान
करहा दलं नत्थि गानं ॥ सजी नारि पिढें छुटंती हवाई । किते स्वान चीता सु सत्ये सजाई ॥४॥
उडे रेनु ब्यूहं सु ढंक्यो प्रयास । भयो भानु
बिम्ब मना संझ भासं ॥ महा सेल कहें करे सुद्ध- मग्गं । भरं भूरुहं भर कर क्रषि भग्गं ॥ ४॥
करते पयानं उरझे कुरगा । जनों जलधि संमेल
कालिंदि गंगा ॥ नदी ताल इह कुंड बहु सुकि नीरं। घुरे घोष निर्घोष नाबति गुहीरं ॥ ५० ॥
मच्यो सेन सारं सुने कासु सद्द । गजे नारि
गोरा मना मेघ भद्द॥ प्रति द्यौस दर हाल कीये . पयानं । प्रपत्तो दलं मज्झ मेवार थानं ॥ ५१ ॥