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१६८ राजविलास । दंड देत देवल्या नालिबंधन सु निरंतर । दाइ सहस दीनार ऐन सल्लै उर अंतर ॥ सल्ले यु शत्रु ए तुम शरन सो ब सिताब समप्पियहि । राजेश राण सु बिहान कहि कलह मूल तें कप्पियहि ॥१८॥ राजथान निय रचो बास चित्तोर बसाइय । मानों दिल्लिय यहां सेन धन लच्छि सजाइय ॥ नौ- बति नद्द निसान घोष इहि तषत घुराऊं। सच्चो तौ हूं साहि बहुत कहि कहा बताऊ ॥ फुरमान लिषेव कहा सु फिरि तिहूं तिबेर कही सु तुम । राजेश राण सुलतान कहि अब जिनि कट्टों दास हम ॥२०॥ ॥दोहा॥ यों तीजो फरमान पहु, राण बंचि राजेश । क्रूर कोप करि लिषि कहें, सुनि औरँग असुरेश ॥२१॥ ॥ कवित्त ॥ जिहिं रक्खें जगदीश अप्प इकलिङ्ग ईस बर । तिहि रक्खें जोधार राण अनमी राजेशर ॥ जिहिं रक्खें योगिनी रधू चित्तोर सुरानी। जिहिं रक्खें बावन्न बीर मुष कह कह वानी। पतिसाह मात आवै प्रगट बरस सहस लौं जो बिढ़य ॥ सुलतान साहि ओरँग तदपि चित्रकाट कर ना चढ़य ॥ २२ ॥ . जो हेमालय गरहु गहों जो कासी करवत । जो जीवत धर गडहु पढ़हु जो चढ़ि गढ़ परबत ॥जो