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१६५ राजविलास । साहि मोरंग अब भूलि न को रक्खा भरम ॥ १२३ ॥ भलिन राखहु भरम नरम अति करिग चित्त तिय । सजि चतुरंगिनि सेन प्रबल हय गय पयदल प्रिय ॥ हम पै प्रावहु हरषि निरषि नृप जसपति नन्दन ॥ रीझि करौं राजेंद्र अप्पि मुरधर प्रानंदन । . इनमें अलीक जो होइ ककु सुक्रत तो हम फोक सब ॥ कमधज्ज सती सुलतान कहि अलिय टेक मंडा न अब ॥ १२४ ॥ ॥दोहा॥ अलिय टेक मंडी न अब जपै यों यवनेश ॥ रस राजस दुहु राखिये करि सब दूरि कलेश ॥१२५॥ मनी सब कमधज मिलि शांत लष्यो सुलतान ॥ नप सुत करि अग्गैन्टपति सजि दल बल संघान ॥ पाए चढ़ि अजमेर गढ़ पय भेटे पतिसाह ॥ नप सुत यूग किन्न नजरि असपति चित्त उमाह १२१ . . ॥ कवित्त ॥ इक दह हय गय एक सज्ज सोवन सिंगारिय । मनि इक मुत्तिय माल उभय चामर अधिकारिय ॥ इक करवाल अनूप एक जमदाढ़ सु अच्छिय । पाति- साह प्रति पेस लखइ गरु २.बसु लच्छिय ॥ कमधज्ज करी रस रंग करि भयो मेलं दुहुँ दीन भल । हरष्यो सु साहि ओरंग हिय प्राण दाण बरती अचल ॥१८॥