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राजविलास । सुलतान साहि ओरंग समत्यह । तो सु योधपुर तुम हि सकल मुरधर धर सत्यह ॥ बगसें सु फेरि मुबिहान बर महिरवान फिर होइ मन । षपि जाय पान उमराव तमु धरै सु साहि षजान धन ॥ ७३ ॥ ॥दोहा॥ तागीरी न तरकि तुमहिं, मुरधर देश महन्त । । प्रभु सेवा ते पाइहो, ओरहि अवनि यु अन्त ॥४॥ इहि पतिसाही रीति अति, कूर न मिट्टय कोइ । . अचल चलय सलसलय अहि, जल जो उत्थल होइ॥ सुनियो कमधज्जह सकल, मते मन्त मतिमान । पातिसाहि. जान्यो पिशुन, अक्खै करि अभिमान ७६ ॥ फवित्त ॥ हम जोधपूरा हिंदु धनी हम आदि मुरध्धर । हम कुल इनी न होइ दण्ड दैरहें साहि दर ॥ जो कोपै यवनेश तऊ इह धर शिर सट्टै । राखै हम रजपूत कूर दानव दल कट्ट॥ नासुरी रीति नाहीं इहां धन गृह दै रक्खै धरनि । यों कहो साहि ओरंग सों फुरमावै ऐसी न फुनि ॥ ७ ॥ ॥दोहा॥ जान्यो नप जसवन्त को, पत्तो ही पर लोक । ऐसी फुनि श्री रंग जू फुरमानो जिन फोक ॥७॥ जानो कबहू एह जिन. हम तुम हुकमी होइ ।