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राजबिलास। १३७ छन्द हनुफाल। भय भीत परि दुरभक्ष, प्रज बिचलि चलिय प्रत्यक्ष । प्रगटयौ सु प्रलय प्रचंड । परहरिय क्षिति नव खण्ड ॥ ११ ॥ नद नदिय सर सुषि नीर । धनवन्त हूं तजि धीर ॥ तुलि अन्न कंचन तोल ॥ महाघ मिलत न मोल ॥ १२० ॥ उत्तमहु तजि आचार। पादरिय एकाकार । शुचि साच सत सन्तोष । दुरि गए अनहि दोष १२१॥ बल बुद्धि बिनय विवेक । कुल जाति पांति सु टेक । परहरिय निय परिवार । लागन्त अन्नहि लार ॥ १२२ ॥ सगपन सयान सु गेहं । नर नारि हूं तजि नेह ॥ बिन अन्न जग बिललन्त। भूषेति अभष भषन्त ॥१२३॥ उलटे बराक अनन्त । चहुं बरन दीन चवन्त ॥ गृह गृहनि ग्रास उच्छिष्ट । अति अरस बिरस अनिष्ट ॥ १२४ ॥ मागंत कहि मा बाप । कुननन्त करत कलाप। दारिद्र तनु दुरवेश । कश्चित रु बढ़ि नष केश ॥१२॥ हिल्हरित पट लटकन्त । जन जन सु जिन्ह हटकन्त । कर मध्य खप्परं षण्ड । वपु हीन क्षीन वितण्ड ॥ १२६ ॥