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राजबिलास। रूप पुति जनु रंभ उभय कुल लज्ज सुधरनिय ॥ नि हिन्दू पति धीर प्रवर क्षत्री पन पालन। गो बाह्मन तिय गनहि टेक गृहि संकट टालन ॥ हिन्दवान हद्द रखन हठी बल असुरेस बिडार कह। जगतेश रांण सुत जग जयो कलह केलि जय कार कह ॥ ८० ॥ ॥दोहा॥ कलह केलि जह तह करत, ए असुरेस अनिट्ठ । जनम्यो एह कलंकि जनु, दिल्ली पति अति दिट्ठ॥८॥ ॥ कबित ॥ दिल्ली पति अति ढिठ साहि औरङ्ग प्रेत सम । प्रतिदल बल असुरेस, अवनि सद्धत करि उद्धम ॥ देश देश पति दमत गृहत पर भूमि नगर गढ़ । वृद्धि करत निज बंश दुह दीदार मंत दृढ़ ॥ प्राधीन किए जिन अवनि पति कमधज कळवाहा प्रभति । श्री राज रांण जगतेश के, गिन्यो साहि अकतूल गति ॥२॥ ॥दोहा॥ राज रांण जगतेश के मंडिय पालम मान । रूपसिंह रठौर धिय, परनी प्रिया प्रधान ॥३॥ ॥ कवित्त ॥ परनि रहवरि प्रिया घोष नोवत्ति घुरंतह ।