पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/७५

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२४. रहीम-कवितावली। रहिमन यहि संसार मैं, सब सुख मिलत अगोट । जैसे फूटे नरैद के, परत दुहुँन सिर चोट ॥ १६२ ॥ रहिमन सुधि सबते भली, लगै जो बारम्बार । बिछुरे मानुष फिरि मिलें, यहै जानि अवतार ॥१३॥ रहिमन रिस को छाडिकै, करौ गरीबी भेस। मीठे बोलौ नै' चलौ, सबै तुम्हारो देस ॥ १६४ ॥ रहिमन कुटिल कुल्हारज्यों, के डारै दुइ टूक । चतुरन के कलकत रहै, चूक समै की एक ॥ १६५॥ रहिमन अोछे के किए, के तो कर बढ़ि काम । तीनि पैग बसुधा भई, बामन छुट्यो न नाम ॥ १६६ ॥ रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उतसाह । मृग उछरत आकाश को, भूमि खनत बाराह ॥ १७॥ रहिमन बित्त अधर्म को, जात न लागै बार। चोरी करि होरी रची, भई छिनक मैं छार ॥ १८ ॥ रहिमन भैया पेट सों, बहुत कह्या समुझाइ । जो तू अनखोये रहै, कत कोऊ अनखाइ ॥ १६६ ॥ ___ १९२-१-परस्पर के सहारे से । . २-चौसर के खेल में जब दो गोटें एक ही घर में आजाती हैं तो उनको नरद कहते हैं । जब तक वे एक घर में रहती हैं, वे मारी नहीं जा सकती। १९४-१-नम्र होकर । १६६-१-बिना खाए, २-बुरा लगना। ..