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रहीम का परिचय।


सं० १६४७ में वाक़यात बाबरी का तुर्की भाषा से फ़ारसी में अनुवाद किया। इस अनुवाद की उत्तमता के कारण इन्हें जौनपुर का इलाक़ा जागीर में दिया गया। और सं० १६४९ में मुल्तान जागीर में मिला। सिंध के अधिकार में भी इन्होंने अपनी युद्ध-कुशलता का अच्छा परिचय दिया।

सं० १६५२ में अहमदनगर-राज्य में बड़ी गड़बड़ी पैदा हो गई। उसको शान्त करने के लिए सुल्तान मुराद के साथ रहीम वहाँ भेजे गये। दोवर्ष बाद इसमें सफलता प्राप्त हुई और ये आगरे वापस आए। इसी साल इनकी स्त्री का देहावसान हो गया।

संवत् १६५७ में अहमदनगर में फिर विद्रोह फैला। रहीम फिर भेजे गए। थोड़े ही काल में विपक्षियों को परास्त कर दिया। उस विजित देश का ख़ानदेश नामक एक सूबा बनाया गया। उसका एक सूबेदार नियुक्त किया गया और ख़ानख़ानाजी उस के दीवान नियुक्त हुए। जिस समय अकबर की मृत्यु हुई है, रहीम ख़ानदेश में ही थे और अन्तिम समय अपने गुण-ग्राही स्वामी के दर्शन भी न पा सके। ये आगरे बाद को वापस आए।

अकबर की मृत्यु के बाद राज्य-शासन-तन्तु कुछ शिथिल से पड़ गए जिस कारण दक्षिण में विद्रोह के चिन्ह फिर दिखाई दिए। ख़ानख़ानाजी तथा शाहज़ादा पर्वेज़ प्रबन्ध के लिए भेजे गए। युद्धकार्य में पर्वेज़ और ख़ान-