पृष्ठ:रहीम-कवितावली.djvu/६८

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दोहे।

भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप ।
रहिमन नभ तैं भूमि लौं, लखौ तो एकै रूप ॥ १३० ॥

मथत-मथत माखन रहै, दही-मही बिलगाइ ।
रहिमन सोई मीत है, भीर परे ठहराइ ॥ १३१ ॥
मन-सौ कहाँ रहीम प्रभु, दृग-सों कहाँ देवान ।
दृग देखैं जेहि आदरैं, मन तेहि हाथ बिकान ॥ १३२॥

मनेसिज माली की उपज, कही रहीम न जाइ।
फूलै स्याम के उर लगे, फल स्यामा उर आइ ॥ १३३ ॥
मन्दन के मारेहु गए, औगुन गनि न सिराहिं।
ज्यों रहीम बाधहुँ बंधे, मरही ह्वै अधिकाहिं ॥१३४॥

महि नभ सर पंजेर कियो, रहिमन बल अवसेष ।
सो अरजुन बैरीट घरं, रहे नारि के भेष ॥ १३५ ॥
माँगे घटत रहीम पद, कितो करो बढि काम ।
तीनि पैग बसुधा करी, तऊ बावनै नाम ॥ १३६ ॥

माँगे मुकुरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ ।
माँगन आग्रे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ ॥ १३७ ॥
मानसरोवर ही मिलै, हंसनि मुकता भोग।
सफैरिन भरे रहीम सर, विपुल बलानि जोग ॥ १३८ ॥


१३३-१-काम, २-हर्ष, ३-उरज ।

१३४-१-दुष्ट प्रकृति की आत्मा।

१३५-१-बाण-तीर,२-ठट्ठर, ३-राजा विराट ।

१३८-१-छोटी-छोटी मछलियाँ । २-बगुले। .