देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन-रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥ 9५ ॥ *
धन थोरो इज्जति बड़ी, कहु रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुल-बधू. चिथरन माहिं समात ॥ 9६ ॥
धन दारा अरु सुतन मैं, रहत लगाए चित्त ।
क्यों रहीम खोजत नहीं, गाढ़े दिनको मित्त ॥ 9७ ॥
धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
जियत कंजे तजि अन्त बसि, कहा भौंर को भाय ॥ 9८ ॥
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत श्रघाइ ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाइ ॥ 99 ॥
धूरि धरत नित सीस पै, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनि-पतंनी तरी, सो ढूँढ़त गजराज ॥ १०० ॥
नहि रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग |
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ॥ १०१ ॥
तात नेह दूरी भलो, लो रहीम जिय जानि ।
नेकट निरादर होत है, ज्यों गड़ेही को पानि ॥ १०२ ॥
9५ – कहा जाता है कि कविवर गंग के निम्न लिखित दोहे के उत्तर में रहीम ने यह दोहा तत्काल बना कर उन्हें सुनाया था:-
सीखे कहाँ नवाब जू, ऐसी देनी दैन ।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन ॥
१०० - १ - अहल्या
१०२ – १-छोटी तलैया ।