तेहि प्रमान चलिबो भलो, जो सब दिन ठहराइ।
उमँड़ि चलै जल पाट तैं, जो रहीम बढ़ि जाइ ॥८७॥ *
दादुर मोर किसान मन, लग्यो रहै घन माहिं ।
पै रहीम चातक-रटनि, सरवरि को कोउ नाहिं ।। ८८ ॥
दिव्य दीनता के रसहिं, का जानै जग अन्धु ।
भली बिचारी दीनता, दीनबन्धु-से बन्धु ॥ ८9॥
दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोइ ।
जो रहीम दीनहिं लखै, दीनबन्धु सम होइ ॥ 90 ।।
दुख नर सुनि हाँसी करैं, धरैं रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि-सुनि करैं, ऐसे वे रघुवीर ॥ 9१॥
दुरदिन परे रहीम जग, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥ 9२॥
दुर दिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिंचानि ।
सोच नहीं बित-हानि को, जो न होइ हित-हानि ॥ 93॥
दोहा दीरघ अर्थ के, आखेर थोरे आहिं।
ज्यों रहीम नट कुण्डली, सिमिटि कूदि कढ़ि जाहिं ॥ 9४ ॥
- ८७-कहीं-कहीं यह दोहा ऐसे भी पाया जाता है:-
जो मरजाद चली सदा, सोई तौ ठहराइ ।
जो जल उमडै़ पाटतैं, सो रहीम बहि जाइ॥
८८-१-बराबरी ।
9२-१-वह स्थान जहाँ देहात में लोग कूड़ा इकट्ठा करते हैं ।
9४-१-अक्षर।